नशा पिला के गिराना तो सब को आता है;
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।
जिगर की आग बुझे जिससे जल्द वो शय ला,
लगा के बर्फ़ में साक़ी, सुराही-ए-मय ला।
पीने से कर चुका था मैं तौबा मगर ‘जलील’;
बादल का रंग देख के नीयत बदल गई।
ऐ ज़ौक़ देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा,
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई।
आता है जी में साक़ी-ए-मह-वश पे बार बार,
लब चूम लूँ तिरा लब-ए-पैमाना छोड़ कर।