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Month:
June 2015
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
दूर जाने की कोशिशों में हैं
इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
जब तेरा दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है
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