Month: November 2015
तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं / अहमद फ़राज़
क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं दोस्ती तो उदास करती नहीं हम हमेशा के सैर-चश्म सही तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं शब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरह कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं ये मोहब्बत है, सुन, ज़माने, सुन! इतनी आसानियों से मरती नहीं जिस तरह तुम गुजारते हो फ़राज़ जिंदगी उस तरह गुज़रती… Continue reading तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं / अहमद फ़राज़
सच / रामभरत पासी
भूख की बगल में दबी-छटपटाती आत्मा को धीरे-धीरे शरीर से अलग होते देखा है कभी? या देखा है उन्हें भी जो गढ़ते हैं शकुनि के पाँसे— निर्विकार भाव से तुम चाहे जो कह लो चाहे जिस नाम से करके महिमामंडित बैठा दो आसमान पर लेकिन इतना जान लो कि उनकी नग्नता को नहीं छुपा पाएँगे… Continue reading सच / रामभरत पासी
समय रहते / रामभरत पासी
समय रहते दबा दो मिट्टी में गहरे उन सड़ी-गली परम्पराओं को बदबू फैलाने से पहले किसी लाश की तरह क्योंकि फिर नहीं झुठला पाओगे तुम पानी और रेत से भरी बाल्टी पर लिखे ‘आग’ जैसे अपने दामन पर लगे बदनुमां धब्बे को।
समानान्तर इतिहास / नीरा परमार
इतिहास राजपथ का होता है पगडंडियों का नहीं! सभ्यताएँ / बनती हैं इतिहास और सभ्य / इतिहास पुरुष! समय उस बेनाम क़दमों का क़ायल नहीं जो अनजान दर्रों जंगलों कछारों पर पगडंडियों की आदिम लिपि— रचते हैं ये कीचड़-सने कंकड़-पत्थर से लहूलुहान बोझिल थके क़दम अन्त तक क़दम ही रहते हैं उन अग्रगामी पूजित चरणों… Continue reading समानान्तर इतिहास / नीरा परमार
सलाह / निशांत
वह हरिजन था उसने मन्दिर में प्रवेश करने की कोशिश की और तुमने उसे क़त्ल कर दिया वैसे इसकी ज़रा भी ज़रुरत नहीं थी तुम उसे विज्ञान और नये ज्ञान का रास्ता दिखा देते या किसी नास्तिक से मिलवा देते!
सिंहावलोकन / लक्ष्मी नारायण सुधाकर
वध करने ‘शम्बूक’ तुम्हारा फिर से राम चला है सावधान! ‘बलि’ भारत में युग-युग से गया छला है दम्भी-छल-कपटी द्विजाचार अब तक वह शत्रु हमारा ‘एकलव्य’ अँगूठा काट रहा वह ‘द्रोणाचार्य’ तुम्हारा ‘कालीदह’ में कृष्ण चला फिर से उत्पात मचाने ‘नागों’ की बस्ती को ‘अर्जुन’ फिर से चला जलाने ‘पुष्यमित्र’ कर में नंगी लेकर तलवार… Continue reading सिंहावलोकन / लक्ष्मी नारायण सुधाकर
सियासत / सी.बी. भारती
परम्परागत-कलुषित निहित स्वार्थवश निर्मित मकड़जाल तुम्हारी शक्ति और धर्म का अवलम्ब से बढ़ता रहा अन्धविश्वासों का आश्रय ले उसकी शक्ति पली-पुसी बढ़ी शोषण का एक नायाब तरीक़ा चलता रहा सदियों-सदियों तक पलती रही सुख-सुविधाओं में पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ– क्योकि वंचित कर दिया था तुमने करोड़ों-करोड़ दलितों को काले आखर से— जो है विकास का मूलाधार तुम्हारे ये… Continue reading सियासत / सी.बी. भारती
सिसकता आत्मसम्मान / सी.बी. भारती
(1) स्वतन्त्रता के अधूरे एहसास से धूमिल आत्मसम्मान के व्यथित क्षणों में ठहर-ठहर कर स्मृतियों के दंश घावों को हरा कर देते हैं याद आती है पगडंडियों पर से भी न गुज़रने देने की रोक-टोक टीचर व सहपाठियों की कुटिल-दृष्टि उनके बिहँसते खिजाते अट्टहास- ठेस पहुँचाते घृणित असमान व्यवहार पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ वंशजों के बेगार ढंग से… Continue reading सिसकता आत्मसम्मान / सी.बी. भारती
उगते अंकुर की तरह जियो / सुशीला टाकभौरे
स्वयं को पहचानो चक्की में पिसते अन्न की तरह नहीं उगते अंकुर की तरह जियो धरती और आकाश सबका है हवा प्रकाश किसके वश का है फिर इन सब पर भी क्यों नहीं अपना हक़ जताओ सुविधाओं से समझौता करके कभी न सर झुकाओ अपना ही हक़ माँगो नयी पहचान बनाओ धरती पर पग रखने… Continue reading उगते अंकुर की तरह जियो / सुशीला टाकभौरे