अकबर इलाहाबादी

1.

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बन्दे तो मिले अल्लाह का बन्दा न मिला

बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला

गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आये बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला

वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला

सय्यद उट्ठे जो गज़ट ले के तो लाखों लाये
शैख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला

2.

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चन्द कि हूँ होश में होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त नक़्श-ए-दीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत
ग़म का मुझे ये ज़ौफ़ है बीमार नहीं हूँ

वो गुल हूँ ख़िज़ाँ ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

या रब मुझे महफ़ूस रख उस बुत के सितम से
मैं उसकी इनायत का तलबगार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौर की कुछ हद नहीं “अकबर”
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीँ हूँ

3.

हंगामा है क्यूँ बर्पा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

उस मै से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मै से दिल ही में जो खिंचती है

वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में के सब सह लो
उनका भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहे काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है

4.

साँस लेते हुये भी डरता हूँ
ये न समझें कि आह करता हूँ

बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हुबाब
मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ

इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ

शेख़ साहब ख़ुदा से डरते हो
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ

आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ

ये बड़ा ऐब मुझ में है ‘अकबर’
दिल में जो आये कह गुज़रता हूँ

5.

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने’
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

6.
हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई

एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई

अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई

नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई

7.
हस्ती के शज़र में जो यह चाहो कि चमक जाओ
कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग मे पक जाओ

मैंने कहा कायल मै तसव्वुफ का नहीं हूँ
कहने लगे इस बज़्म मे जाओ तो थिरक जाओ

मैंने कहा कुछ खौफ कलेक्टर का नहीं है
कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ

मैंने कहा वर्जिश कि कोई हद भी है आखिर
कहने लगे बस इसकी यही हद कि थक जाओ

मैंने कहा अफ्कार से पीछा नहीं छूटता
कहने लगे तुम जानिबे मयखाना लपक जाओ

मैंने कहा अकबर मे कोई रंग नहीं है
कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फडक जाओ

8.
हाले दिल सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता

इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता

पोंछ सकता है हमनशीं आँसू
दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता

मुझको हैरत है इस कदर उस पर
इल्म उसका घटा नहीं सकता

9.
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
‘अकबर’ ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का

गर शैख़-ओ-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का
माबद न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना किसी का

अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चांद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का

अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का

इशरत जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का

करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौर से अफ़साना किसी का

कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का

हम जान से बेज़ार रहा करते हैं ‘अकबर’
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का

10.
शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा

आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा

तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा

ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा

क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा

11.
बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक

मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक

तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक

अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक

जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक

जनाबे हज़रते ‘अकबर’ हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक

12.

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

13.

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे,ज़ालिम मगर तसकीन को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की

लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा,फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-‘अकबर’ देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की

14.

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है

इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है

हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है

15.

किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा

अव्वल बना के पुतला,पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा की सूरत में आके मारा

आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा

ग़ुंचों में आके महका,बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

सोसन की तरह ‘अकबर’, ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा

16.

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से

तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से
उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से

शेख़ नाफ़ह्म हैं करते जो नहीं क़द्र उसकी
दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से

मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से

कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में ‘अक़बर’
इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से

17.

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब! ये मुरव्वत कैसी

दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी

जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी

है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी

हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी

कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी

By Saavan

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