सामन्तों-पूँजीपतियों की जो मिली-भगत से काम हुआ सत्ता-परिवर्तन का सौदा करने पर क़त्ले-आम हुआ हिंसा-नफ़रत पर रखी गयी आज़ादी की आधारशिला आज़ाद हुआ बस लाल क़िला दो-चार वसन्त के फूल खिले कहते ऋतुराज वसन्त हुआ ठूँठों पर नज़र नहीं डाली जिनके जीवन का अन्त हुआ परकटे परिन्दों से पूछो जिनका धू-धू कर नीड़ जला आज़ाद… Continue reading आज़ाद हुआ बस लाल क़िला / लक्ष्मी नारायण सुधाकर
Month: November 2015
आज का रैदास / जयप्रकाश कर्दम
शहर में कॉलोनी कॉलोनी में पार्क पार्क के कोने पर सड़क के किनारे जूती गाँठता रैदास पास में बैठा उसका आठ बरस का बेटा पूसन फटे-पुराने कपड़ों में लिपटा अपने कुल का भूषण चाहता है वह ख़ूब पढ़ना और पढ़-लिखकर आगे बढ़ना लेकिन लील रही है उसे दारिद्रय और दीनता घर करती जा रही है… Continue reading आज का रैदास / जयप्रकाश कर्दम
हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो
****1**** हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यों उछाला मुझे ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इसको हादिसा न कहो ये और बात के… Continue reading हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो
अभिलाषा / एन. आर. सागर
हाँ-हाँ मैं नकारता हूँ ईश्वर के अस्तित्व को संसार के मूल में उसके कृतित्व को विकास-प्रक्रिया में उसके स्वत्व को प्रकृति के संचरण नियम में उसके वर्चस्व को, क्योंकि ईश्वर एक मिथ्या विश्वास है एक आकर्षक कल्पना है अर्द्ध-विकसित अथवा कलुषित मस्तिष्क की तब जाग सकता है कैसे इसके प्रति श्रद्धा का भाव? सहज लगाव?… Continue reading अभिलाषा / एन. आर. सागर
अखाड़े की माटी / ओमप्रकाश वाल्मीकि
कुश्ती कोई भी लड़े ढोल बजाता है सिमरू ही जिसके सधे हाथ भर देते हैं जोश पूरे दंगल में उछलने लगती है मिट्टी पूरे अखाड़े की ताक धिना-धिन… ताक धिना-धिन झाँकने लगते हैं लोग एक-दूसरे के कन्धों के ऊपर से उचक-उचक कर बहुत गहरा है रिश्ता सिमरू और ढोल का— जैसे साँस और धड़कन का… Continue reading अखाड़े की माटी / ओमप्रकाश वाल्मीकि
अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’
अब मैं छटपटाता रहा हूँ तुम तो ख़ुश हो न? मेरी रौशनी दो, दो! मत दो? गहराने देता हूँ दर्द आख़िर रौशनी मेरी ही है न? तुमने कितनी सहजता से माँग लिया था आँखों की रौशनी को मैंने बिना हिचक दिया था ताकि तुम्हें कहीं परेशानी न हो न कुत्ते नोचें न कोई चोर-लबार सोचे… Continue reading अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’
अछूत की शिकायत / हीरा डोम
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी हमनी के साहेब से मिनती सुनाइबि। हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते, हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि। पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां, बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां, हाय राम! धसरम न छोड़त बनत बा जे, बे-धरम होके कैसे मुंहवा दिखइबि॥१॥ खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।… Continue reading अछूत की शिकायत / हीरा डोम
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी चल रही है छंद के आयाम… Continue reading मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको