1.
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के [1]
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले[3]
वो फ़ित्नासर[4] गए जिन्हें काँटें अज़ीज़ थेअब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम
सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
संभले हुए तो हैं पर ज़रा डगमगा तो लें ।शब्दार्थ:
↑ प्रेम की मृत्यु का महोत्सव
↑ पिघलता हुआ
↑ उत्साह उमंग
↑ पाग़ल
↑ पुरातन प्रेम
काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवाबायस-ए-रश्क़ है तन्हा रवी-ए-रहरौ-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा
हम ने दुनिया की हर इक शै से उठाया दिल को
लेकिन इक शोख के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा
तेग़ मुन्सिफ़ हो जहाँ दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर मे क़ातिल के सिवा
ज़ाने किस रंग से आई है गुलशन में बहार
कोई नग़मा ही नही शोर-ए-सिलासिल के सिवा
3.
फिर वही तारीक रातों में ख़याल-ए-माहताब
फिर वही तारों की पेशानी पे रंग-ए-लाज़वाल
फिर वो आँखें भीगी भीगी दामन-ए-शब में उदास
फिर वही फ़र्दा[2] की बातें फिर वही मीठे सराब[3]
फिर वही वारफ़्तगी[5] तन्हाई अफ़सानों का खेल
फिर वही शहर-ए-तमन्ना फिर वही तारीक राह
दर्द भी छिनने लगा उम्मीद भी छिनने लगी
फिर वही तारीक[6] माज़ी फिर वही बेकैफ़[7] हाल
फिर वही तारीक रातों में ख़याल-ए-माहताबशब्दार्थ:
↑ मक़बरा समाधि
↑ आने वाला कल भविष्य
↑ भ्रम
↑ निद्राविहीन
↑ ख़ुद अपने आप में खोया हुआ
↑ काला अँधेरा
↑ उमंगहीन जीवनहीन
तुम्हारे लहजे में जो गर्मी-ओ-हलावत[1] है
इसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह
दयार-ए-दर्द में आमद[3] कहो मसीहा की
ख़ला-ए-सुबह[5] में गूँजी सहर की शहनाई
इस इल्तहाब[6] में सुर्मगीं[7] उजाले में
हयात नाम है यादों का तल्ख़ और शीरीं
शफ़क़[8] को क़ैद में रखा सबा को बन्द किया
न तुम मिलोगी न मैं हम भी दोनों लम्हे हैं
↑ मिठास आत्मीयता
↑ दुश्मन
↑ आगमन
↑ फैली हुई बिखरी हुई
↑ सुबह की शान्ति
↑ उदासीनता निराशा
↑ सुरमई
↑ झुटपुटा
↑ भागना पलायन करना