सिंहावलोकन / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

वध करने ‘शम्बूक’ तुम्हारा फिर से राम चला है सावधान! ‘बलि’ भारत में युग-युग से गया छला है दम्भी-छल-कपटी द्विजाचार अब तक वह शत्रु हमारा ‘एकलव्य’ अँगूठा काट रहा वह ‘द्रोणाचार्य’ तुम्हारा ‘कालीदह’ में कृष्ण चला फिर से उत्पात मचाने ‘नागों’ की बस्ती को ‘अर्जुन’ फिर से चला जलाने ‘पुष्यमित्र’ कर में नंगी लेकर तलवार… Continue reading सिंहावलोकन / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

सियासत / सी.बी. भारती

परम्परागत-कलुषित निहित स्वार्थवश निर्मित मकड़जाल तुम्हारी शक्ति और धर्म का अवलम्ब से बढ़ता रहा अन्धविश्वासों का आश्रय ले उसकी शक्ति पली-पुसी बढ़ी शोषण का एक नायाब तरीक़ा चलता रहा सदियों-सदियों तक पलती रही सुख-सुविधाओं में पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ– क्योकि वंचित कर दिया था तुमने करोड़ों-करोड़ दलितों को काले आखर से— जो है विकास का मूलाधार तुम्हारे ये… Continue reading सियासत / सी.बी. भारती

सिसकता आत्मसम्मान / सी.बी. भारती

Every day, Uma walks through the village with her basket to the communal latrine. Nobody touches her along the way. She has an enamel toilet in her own home, but she cleans the excrement of others because this is the job assigned by her caste. This practice has been illegal since 1993, but still 700,000 Dalits, perhaps more, endure the same daily routine as Uma. Kurnool District, Andhra Pradesh.

(1) स्वतन्त्रता के अधूरे एहसास से धूमिल आत्मसम्मान के व्यथित क्षणों में ठहर-ठहर कर स्मृतियों के दंश घावों को हरा कर देते हैं याद आती है पगडंडियों पर से भी न गुज़रने देने की रोक-टोक टीचर व सहपाठियों की कुटिल-दृष्टि उनके बिहँसते खिजाते अट्टहास- ठेस पहुँचाते घृणित असमान व्यवहार पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ वंशजों के बेगार ढंग से… Continue reading सिसकता आत्मसम्मान / सी.बी. भारती

उगते अंकुर की तरह जियो / सुशीला टाकभौरे

Every day, Uma walks through the village with her basket to the communal latrine. Nobody touches her along the way. She has an enamel toilet in her own home, but she cleans the excrement of others because this is the job assigned by her caste. This practice has been illegal since 1993, but still 700,000 Dalits, perhaps more, endure the same daily routine as Uma. Kurnool District, Andhra Pradesh.

स्वयं को पहचानो चक्की में पिसते अन्न की तरह नहीं उगते अंकुर की तरह जियो धरती और आकाश सबका है हवा प्रकाश किसके वश का है फिर इन सब पर भी क्यों नहीं अपना हक़ जताओ सुविधाओं से समझौता करके कभी न सर झुकाओ अपना ही हक़ माँगो नयी पहचान बनाओ धरती पर पग रखने… Continue reading उगते अंकुर की तरह जियो / सुशीला टाकभौरे

आज़ाद हुआ बस लाल क़िला / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

सामन्तों-पूँजीपतियों की जो मिली-भगत से काम हुआ सत्ता-परिवर्तन का सौदा करने पर क़त्ले-आम हुआ हिंसा-नफ़रत पर रखी गयी आज़ादी की आधारशिला आज़ाद हुआ बस लाल क़िला दो-चार वसन्त के फूल खिले कहते ऋतुराज वसन्त हुआ ठूँठों पर नज़र नहीं डाली जिनके जीवन का अन्त हुआ परकटे परिन्दों से पूछो जिनका धू-धू कर नीड़ जला आज़ाद… Continue reading आज़ाद हुआ बस लाल क़िला / लक्ष्मी नारायण सुधाकर

आज का रैदास / जयप्रकाश कर्दम

शहर में कॉलोनी कॉलोनी में पार्क पार्क के कोने पर सड़क के किनारे जूती गाँठता रैदास पास में बैठा उसका आठ बरस का बेटा पूसन फटे-पुराने कपड़ों में लिपटा अपने कुल का भूषण चाहता है वह ख़ूब पढ़ना और पढ़-लिखकर आगे बढ़ना लेकिन लील रही है उसे दारिद्रय और दीनता घर करती जा रही है… Continue reading आज का रैदास / जयप्रकाश कर्दम

हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो

****1**** हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यों उछाला मुझे ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इसको हादिसा न कहो ये और बात के… Continue reading हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो

अभिलाषा / एन. आर. सागर

हाँ-हाँ मैं नकारता हूँ ईश्वर के अस्तित्व को संसार के मूल में उसके कृतित्व को विकास-प्रक्रिया में उसके स्वत्व को प्रकृति के संचरण नियम में उसके वर्चस्व को, क्योंकि ईश्वर एक मिथ्या विश्वास है एक आकर्षक कल्पना है अर्द्ध-विकसित अथवा कलुषित मस्तिष्क की तब जाग सकता है कैसे इसके प्रति श्रद्धा का भाव? सहज लगाव?… Continue reading अभिलाषा / एन. आर. सागर

अखाड़े की माटी / ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

Uzzal Das cleans a undergroud swerege drainage canal. Like Uzzal Das about 3.5 million “untouchable” sweepers have been staying all over Bangladesh from the British colonial period. Their job remains same till today, they perform the ‘unclean work’ such as cremate the dead, clean latrines, remove the dead animals from the road, sweep the gutters etc.

कुश्ती कोई भी लड़े ढोल बजाता है सिमरू ही जिसके सधे हाथ भर देते हैं जोश पूरे दंगल में उछलने लगती है मिट्टी पूरे अखाड़े की ताक धिना-धिन… ताक धिना-धिन झाँकने लगते हैं लोग एक-दूसरे के कन्धों के ऊपर से उचक-उचक कर बहुत गहरा है रिश्ता सिमरू और ढोल का— जैसे साँस और धड़कन का… Continue reading अखाड़े की माटी / ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’

अब मैं छटपटाता रहा हूँ तुम तो ख़ुश हो न? मेरी रौशनी दो, दो! मत दो? गहराने देता हूँ दर्द आख़िर रौशनी मेरी ही है न? तुमने कितनी सहजता से माँग लिया था आँखों की रौशनी को मैंने बिना हिचक दिया था ताकि तुम्हें कहीं परेशानी न हो न कुत्ते नोचें न कोई चोर-लबार सोचे… Continue reading अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’