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कायनात / रात पश्मीने की / गुलज़ार

बस चन्द करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से
जब कोई चाँद न डूबेगा
और कोई जमीं न उभरेगी
तब ठंढा बुझा इक कोयला सा
टुकड़ा ये जमीं का घूमेगा
भटका भटका
मद्धम खकिसत्री रोशनी में !

मैं सोचता हूँ उस वक्त अगर
कागज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते
सूरज में गिरे
तो सूरज फिर से जलने लगे !!


 

अपने”सन्तूरी”सितारे से अगर बात करूं
तह-ब-तह छील के आफ़ाक़ कि पर्तें
कैसे पहुंचेगी मेरी बात ये अफ़लाक के उस पर भला ?
कम से कम “नूर की रफ़्तार”से भी जाए अगर
एक सौ सदियाँ तो ख़ामोश ख़लाओं से गुजरने में लगेंगी
कोई माद्दा है मेरी बात में तो
“नून”के नुक्ते सी रह जाएगी “ब्लैक होल”गुजर के
क्या वो समझेगा?
मैं समझाऊंगा क्या ?


 

बहुत बौना है ये सूरज ….!
हमारी कहकशाँ की इस नवाही सी ‘गैलेक्सी’में
बहुत बौना सा ये सूरज जो रौशन है…
ये मेरी कुल हदों तक रौशनी पहुँचा नहीं पाता
मैं मार्ज़ और जुपिटर से जब गुजरता हूँ
भँवर से,ब्लैक होलों के
मुझे मिलते हैं रस्ते में
सियह गिर्दाब चकराते ही रहते हैं
मसल के जुस्तजु के नंगे सहराओं में वापस
फेंक देते हैं
जमीं से इस तरह बाँधा गया हूँ मैं
गले से ग्रैविटी का दायमी पट्टा नहीं खुलता !


 

रात में जब भी मेरी आँख खुले
नंगे पाँव ही निकल जाता हूँ
कहकशाँ छू के निकलती है जो इक पगडंडी
अपने पिछवाड़े के “सन्तुरी” सितारे की तरफ़
दूधिया तारों पे पाँव रखता
चलता रहता हूँ यही सोच के मैं
कोई सय्यारा अगर जागता मिल जाए कहीं
इक पड़ोसी की तरह पास बुला ले शायद
और कहे
आज की रात यहीं रह जाओ
तुम जमीं पर हो अकेले
मैं यहाँ तन्हा हूँ|