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अनवर मसऊद

जो बारिशों में जले, तुंद आँधियों में जले
चराग वो जो बगोलों की चिमनियों में जले
वो लोग थे जो सराबे-नज़र के मतवाले
तमाम उम्र सराबों के पानियों में जले
कुछ इस तरह से लगी आग बादबानों को
की डूबने को भी तरसे जो कश्तियों में जले
यही है फैसला तेरा की जो तुझे चाहे
वो दर्दो-करबो-अलम की कठालियों में जले
दमे-फिराक ये माना वो मुस्कुराया था
मगर वो दीप, कि चुपके से अंखडियों में जले
वो झील झील में झुरमुट न थे सितारों के
चराग थे कि जो चांदी की थालियों में जले
धुंआ धुंआ है दरख्तों की दास्ताँ अनवर
कि जंगलों में पले और बस्तियों में जले