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अनवर जलालपुरी

1.
उम्र भर जुल्फ-ए-मसाऐल यूँ ही सुलझाते रहे
दुसरों के वास्ते हम खुद को उलझाते रहे

हादसे उनके करीब आकर पलट जाते रहे
अपनी चादर देखकर जो पाँव फैलाते रहे

जब सबक़ सीखा तो सीखा दुश्मनों की बज़्म से
दोस्तों में रहके अपने दिल को बहलाते रहे

मुस्तक़िल चलते रहे जो मंज़िलोंसे जा मिले
हम नजूमी ही को अपना हाथ दिखलाते रहे

बा अमल लोगों ने मुस्तक़बिल को रौशन कर लिया
और हम माज़ी के क़िस्से रोज़ दोहराते रहे

जब भी तनहाई मिली हम अपने ग़म पे रो लिये
महफिलों में तो सदा हंसते रहे गाते रहे
2.

जंज़ीर-व-तौक या रसन-व-दार कुछ तो हो

इस ज़िन्दगी की क़ैद का मेयार कुछ तो हो

यह क्या कि जंग भी न हुई सर झुका लिया

मैदान –ए-करज़ार में तक़रार कुछ तो हो

मैं सहल रास्तों का मुसाफ़िर न बनसका

मेरा सफ़र वही है जो दुशवार कुछ तो हो

ऐसा भी क्या कि कोई फरिश्तों से जा मिले

इन्सान है वही जो गुनहगार कुछ तो हो

मक़तल सजे कि बज़्म सजे या सतून-ए-दार

इस शहर जाँ में गर्मी-बाज़ारकुछ तो हो

3.

हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है
कोई तालिब कोई मतलूब नहीं होता है

अब तो पहली सी वह तहज़ीब की क़दरें न रहीं
अब किसी से कोई मरऊब नहीं होता है

अब गरज़ चारों तरफ पाँव पसारे है खड़ी
अब किसी का कोई महबूब नहीं होता है

कितने ईसा हैं मगर अम्न-व-मुहब्बत के लिये
अब कहीं भी कोई मस्लूब नहीं होता है

पहले खा लेता है वह दिल से लड़ाई में शिकस्त
वरना यूँ ही कोई मजज़ूब नहीं होता है
4.

ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है

वैसे अभी मरने का इरादा भी नहीं है

हर चेहरा किसी नक्श के मानिन्द उभर जाए

ये दिल का वरक़ इतना तो सादा भी नहीं है

वह शख़्स मेरा साथ न दे पाऐगा जिसका

दिल साफ नहीं ज़ेहन कुशादा भी नहीं है

जलता है चेरागों में लहू उनकी रगों का

जिस्मों पे कोई जिनके लेबादा भी नहीं है

घबरा के नहीं इस लिए मैं लौट पड़ा हूँ

आगे कोई मंज़िल कोई जादा भी नहीं

 

5.

क्या बतलाऊँ कितनी ज़ालिम होती है जज़्बात कि आँच
होश भी ठन्डे कर देती है अक्सर एहसासात कि आँच

कितनी अच्छी सूरत वाले अपने चेहरे भूल गये
खाते खाते खाते खाते बरसों तक सदमात कि आँच

सोये तो सब चैन था लेकिन जागे तो बेचैनी थी
फर्क़ फ़क़त इतना ही पड़ा था तेज़ थी कुछ हालात कि आँच

हम से पूछो। हम झुल्से हैं सावन की घनघोर घटा में
तुम क्या जानों किस शिद्दत की होती है बरसात कि आँच

दिन में पेड़ों के साए में ठडक मिल जाती है
दिल वालों की रूह को अक्सर झुलसाती है रात कि आँच

6.
खुदगर्ज़ दुनिया में आखिर क्या करें
क्या इन्हीं लोगों से समझौता करें

शहर के कुछ बुत ख़फ़ा हैं इस लिये
चाहते हैं हम उन्हें सजदा करें

चन्द बगुले खा रहे हैं मछलियाँ
झील के बेचारे मालिक क्या करें

तोहमतें आऐंगी नादिरशाह पर
आप दिल्ली रोज़ ही लूटा करें

तजरूबा एटम का हम ने कर लिया
अहलें दुनिया अब हमें देखा करें

 

7.

प्यार को सदियों के एक लम्हे कि नफरत खा गई

एक इबादतगाह ये गन्दी सियासत खा गई

बुत कदों की भीड़ में तनहा जो था मीनार-ए-हक़

वह निशानी भी तअस्सुब की शरारत खा गई

मुस्तक़िल फ़ाक़ो ने चेहरों की बशाशत छीन ली

फूल से मासूम बच्चों को भी गुर्बत खा गई

ऐश कोशी बन गई वजहे ज़वाले सल्तनत

बेहिसी कितने शहन्शाहों की अज़मत खा गई

आज मैंने अपने ग़म का उससे शिकवा कर दिया

एक लग़ज़िश ज़िन्दगी भर की इबादत खा गई

झुक के वह ग़ैरों के आगे खुश तो लगता था मगर

उसकी खुद्दारी को खुद उसकी निदामत खा गई

 

8.

त भर इन बन्द आँखों से भी क्या क्या देखना

देखना एक ख़्वाब और वह भी अधूरा देखना

कुछ दिनों से एक अजब मामूल इन आँखों

कुछ आये या न आये फिर भी रस्ता देखना

ढूंढ़ना गुलशन के फूलों में उसी की शक्ल को

चाँद के आईने में उसका ही चेहरा देखना

खुद ही तन्हाई में करना ख्वाहिशों से गुफ्तगू

और अरमानों की बरबादी को तन्हा देखना

तशनगी की कौन सी मन्ज़िल है ये परवरदिगार

शाम ही से ख़्वाब में हररोज़दरिया देखना

 

9.

खुदगर्ज़ दुनिया में आखिर क्या करें

क्या इन्हीं लोगों से समझौता करें

शहर के कुछ बुत ख़फ़ा हैं इसलिये

चाहते हैं हम उन्हें सजदा करें

चन्द बगुले खा रहे हैं मछलियाँ

झील के बेचारे मालिक क्या करें

तोहमते आऐंगी नादिरशाह पर

आप दिल्ली रोज़ ही लूटा करें

तजरूबा एटम का हमने कर लिया

अहले दुनिया अब हमें देखा करें

 

10.

भी आँखों की शमऐं जल रही हैं प्यार ज़िन्दा है

अभी मायूस मत होना अभी बीमार ज़िन्दा है

हज़ारों ज़ख्म खाकर भी मैं ज़ालिम के मुक़ाबिल हूँ

खुदा का शुक्र है अब तक दिले खुद्दार ज़िन्दा है

कोई बैयत तलब बुज़दिल को जा कार ये ख़बर कर दे

कि मैं ज़िन्दा हूँ जब तक जुर्रते इन्कार ज़िन्दा है

सलीब-व-हिजरतो बनबास सब मेरे ही क़िस्से हैं

मेरे ख़्वाबों में अब भी आतशी गुलज़ार ज़िन्दा है

यहाँ मरने का मतलब सिर्फ पैराहन बदल देना

यहाँ इस पार जो डूबे वही उस पार ज़िन्दा हैं

 

11.

दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा

साफ़ और शफ्फ़ाफ़ आईने में बाल आ जायेगा

भूल जायेंगी ये सारी क़हक़हों की आदतैं

तेरी खुशहाली के सर पर जब ज़वाल आ जायेगा

मुसतक़िल सुनते रहे गर दास्ताने कोह कन

बे हुनर हाथों में भी एक दिन कमाल आ जायेगा

ठोकरों पर ठोकरे बन जायेंगी दरसे हयात

एक दिन दीवाने में भी ऐतेदाल आ जायेगा

बहरे हाजत जो बढ़े हैं वो सिमट जायेंगे ख़ुद

जब भी उन हाथों से देने का सवाल आ जायेगा

 

12.

अभी तो शाम है ऐ दिल अभी तो रात बाक़ी है
अमीदे वस्ल वो हिजरे यार की सौग़ात बाक़ीहै

अभी तो मरहले दारो रसन तक भी नहीं आये
अभी तो बाज़ीये उलफ़त की हरएक मात बाक़ी है

अभी तो उंगलियाँ बस काकुले से खेली हैं
तेरी ज़ुल्फ़ों से कब खेलें ये बात बाक़ी है

अगर ख़ुशबू न निकले मेरे सपनों से तो क्या निकले
मेरे ख़्वाबोंमें अबभी तुम, तुम्हारी ज़ात बाक़ी है

अभी से नब्ज़े आलम रूक रही है जाने क्यों ‘अनवर’
अभी तो मेरे अफ़साने की सारी रात बाक़ी है
13.

गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था
फ़क़ीर हीथा मगर शानदार मैं भी था

मैं दिल की बात कभी मानता नहीं फिर भी
इसी के तीरका बरसों शिकार मैं भी था

मैं सख़्त जान भी हूँ बे नेयाज़ भी लेकिन
बिछ्ड़ केउससे बहुत बेक़रार मैं भी था

तू मेरे हाल पर क्यों आज तन्ज़ करता है
इसे भी सोच कभी तेरा यार मैं भी था

ख़फ़ा तो दोनों ही एक दूसरे से थेलेकिन
निदामत उसको भी थी शर्मसार मैं भी था
14.

जश्ने वहशत मकतल देर तक नहीं रहता

ज़हन में कोई जंगल देर तक नहीं रहता

ख़्वाब टूट जाते हैं दिल शिकस्त खाता है

बे सबब कोई पागल देर तक नही रहता

दिन गुज़रते रहते हैं उम्र ढलती जाती है

चेहरा-ए-हसीं कोमल देर तक नहीं रहता

आज की हसीं सूरत कल बिगड़ भी सकती है

आँख में कभी काजल देर तक नहीं रहता

खारदार राहों से दुश्मनी न कर लेना

पाँव के तले मख़मल देर तक नहीं रहता

 

15.

पराया कौन है और कौन अपना सब भुला देंगे

मताए ज़िन्दगानी एक दिन हम भी लुटा देंगे

तुम अपने सामने की भीड़ से होकर गुज़र जाओ

कि आगे वाले तो हर गिज़ न तुम को रास्ता देंगे

जलाये हैं दिये तो फिर हवाओ पर नज़र रखो

ये झोकें एक पल में सब चिराग़ो को बुझा देंगे

कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िन्दगी क्या है

ज़मीं से एक मुठ्ठी ख़ाक लेकर हम उड़ा देंगे

गिला,शिकवा,हसद,कीना,के तोहफे मेरी किस्मत है

मेरे अहबाब अब इससे ज़ियादा और क्या देंगे

मुसलसल धूप में चलना चिराग़ो की तरह जलना

ये हंगामे तो मुझको वक़्त से पहले थका देंगे

अगर तुम आसमां पर जा रहे हो, शौक़ से जाओ

मेरे नक्शे क़दम आगे की मंज़िल का पता देंगे

 

16.

पैदा कोई राही कोई रहबर नही होता

बे हुस्न-ए-अमल कोई भी बदतर नही होता

सच बोलते रहने की जो आदत नही होती

इस तरह से ज़ख्मी ये मेरा सर नही होता

कुछ वस्फ तो होता है दिमाग़ों दिलों में

यूँ हि कोई सुकरात व सिकन्दर नही होता

दुश्मन को दुआ दे के ये दुनिया को बता दो

बाहर कभी आपे से समुन्दर नही होता

वह शख़्स जो खुश्बू है वह महकेगा अबद तक

वह क़ैद महो साल के अन्दर नहीं होता

उन ख़ाना बदोशों का वतन सारा जहाँ है

जिन ख़ानाबदोशोँ का कोई घर नहीं होता

 

17.

बाल चाँदी हो गये दिल ग़म का पैकर हो गया

ज़िन्दगी में जो भी होना था वह ‘अनवर’ हो गया

अब मुझे कल के लिए भी ग़ौर करना चाहिए

अब मेरा बेटा मेरे क़द के बराबर हो गया

क्या ज़माना है कि शाख़-ए-गुल भी है तलवार सी

फूल का क़िरदार भी अब मिस्ले खंजर हो गया

दिल मे उसअत जिसने पैदा की उसी के वास्ते

दश्त एक आंगन बना सेहरा भी एक घर हो गया

वक़्त जब बिगड़ा तो ये महसूस हमने भी किया

ज़हन व दिल का सारा सोना जैसे पत्थर हो गया

 

18.

चाँदनी में रात भर सारा जहाँ अच्छा लगा

धूप जब फैली तो अपना ही मकाँ अच्छा लगा

अब तो ये एहसास भी बाक़ी नहीं है दोस्तों

किस जगह हम मुज़महिल थे और कहाँ अच्छा लगा

आके अब ठहरे हुये पानी से दिलचस्पी हुई

एक मुद्दत तक हमें आबे रवाँ अच्छा लगा

लुट गये जब रास्ते में जाके तबआँखे खुली

पहले तो एख़लाक़-ए-मीर कारवाँ अच्छा लगा

जबहक़ीक़त सामने आई तो हैरत में पड़े

मुद्दतों हम को भी हुस्ने दास्ताँ अच्छा लगा

 

19.

दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा

साफ और शफ्फ़ाफ़ आईने में बाल आ जायेगा

भूल जायेंगी ये सारी क़हक़हों की आदतैं

तेरी खुशहाली के सर पर जब ज़वाल आ जायेगा

मुस्तकिल सुनते रहे गर दास्ताने कोह कन

बे हुनर हाथों में भी एक दिन कमाल आ जायेगा

ठोकरों पर ठोकरे बन जायेंगी दरसे हयात

एक दिन दीवाने में भी ऐतेदालआजायेगा

बहरे हाजत जो बढ़े है वो सिमट जायेंगे ख़ुद

जब भी हाथों सेदेने का सवाल आ जायेगा

 

20.

बुरे वक़्तो में तुम मुझसे न कोई राब्ता रखना

मैं घर को छोड़ने वाला हूँ अपना जी कड़ा रखना

जो बा हिम्मत हैं दुनिया बस उन्हीं का नाम लेती है

छुपा कर ज़ेहन में बरसो मेरा ये तजरूबा रखना

जो मेरे दोस्त हैं अकसर मैं उन लोगों से कहता हूँ

कि अपने दुश्मनों के वास्ते दिल में जगह रखना

मेरे मालिक मुझे आसनियों ने कर दिया बुज़दिल

मेरे रास्ते में अब हर गाम पर इक मरहला रखना

मैं जाता हूँ मगर आँखों का सपना बन के लौटूगा

मेरी ख़ातिर कम-अज-कम दिल का दरवाज़ा खुला रखना

 

21.

मैं एक शायर हूँ मेरा रुतबा नहीं किसी भी वज़ीर जैसा
मगर मेरे फ़िक्र-ओ-फ़न का फ़ैलाव तो है बर्रे सग़ीर जैसा

मैं ज़ाहरी रगं-रुप से एक बार धोखा भी खा चुका हूँ
वह शख़्स था बादशाह दिल का जो लग रहा था फ़क़ीर जैसा

तुम्हें ये ज़िद है कि शायरी में तुम अपने असलाफ़ से बड़े हो
अगर ये सच है तो फिर सुना दो बस एक ही शेर मीर जैसा

क़रीब आते ही उसकी सारी हक़ीक़तें हम पे खुल गयी हैं
हमारी नज़रो में दूर रहकर जो शख़्स लगता था पीर जैसा

हमारी तारीख़ के सफ़र में मुसाफ़िर ऐसा एक हुआ है
जो कारवाँ का था मीर लेकीन सफ़र में था राहगीर जैसा

 

22.

वह जिन लोगों का माज़ी से कोई रिश्ता नहीं होता

उन्हीं को अपने मुस्तक़बिल का अन्दाज़ा नहीं होता

नशीली गोलियों ने लाज रखली नौजवानों की

कि मैख़ाने जाकर अब कोई रुसवा नहीं होता

ग़लत कामों का अब माहौल आदी हो गया शायद

किसी भी वाक़ये पर कोई हंगामा नहीं होता

मेरी क़ीमत समझनी हो तो मेरे साथ साथ आओ

कि चौराहे पे ऐसे तो कोई सौदा नहीं होता

इलेक्शन दूर है उर्दू से हमदर्दी भी कुछ कम है

कि बाज़ारों में अब कहीं कोई जलसा नहीं होता

 

23.

ख़राब लोगों से भी रस्म व राह रखते थे

पुराने लोग ग़ज़ब की निगाह रखते थे

ये और बात कि करते थे न गुनाह मगर

गुनाहगारों से मिलने की चाह रखते थे

वह बदशाह भी साँसों की जंग हार गये

जो अपने गिर्द हमेशा सिपाह रखते थे

हमारे शेरों पे होती थी वाह वाह बहुत

हम अपने सीने में जब दर्द-ओ-आह रखते थे

बरहना सर हैं मगर एक वक़्त वो भी था

हम अपने सर पे भी ज़र्रीं कुलाह रखते थे

 

24.

उससे बिछड़ के दिल का अजब माजरा रहा

हर वक्त उसकी याद रही तज़किरा रहा

चाहत पे उसकी ग़ैर तो ख़ामोश थे मगर

यारों के दर्म्यान बड़ा फ़ासला रहा

मौसम के साअथ सारे मनाज़िर बदल गये

लेकिन ये दिल का ज़ख़्म हरा था हरा रहा

लड़कों ने होस्टल में फ़क़तनाविलें पढ़ीं

दीवान-ए-मीर ताक़ के ऊपर धरा रहा

वो भी तो आज मेरे हरीफ़ों से जा मिले

जिसकी तरफ़ से मुझको बड़ा आसरा रहा

सड़कों पे आके वो भी मक़ासिद में बँट ग्ये

कमरों में जिनके बीच बड़ा मशविरा रहा

 

25.

कारोबार-ए-ज़ीस्त में तबतक कोई घाटा न था

जब तलक ग़म के इलावा कोई सरमाया न था

मैं भी हर उलझन से पा सकता था छुटकरा मगर

मेरे गमख़ाने में में कोई चोर दरवाज़ा न था

कर दिया था उसको इस माहौल ने ख़ानाबदोश

ख़ानदानी तौर पर वह शख़्स बनजारा न था

शहर में अब हादसों के लोग आदी हो गये

एक जगह एक लाश थी और कोई हंगामा न था

दुश्मनी और दोस्ती पहले होती थी मगर

इस क़दर माहौल का माहौल ज़हरीला न था

पहले इक सूरत में कट जाती थी सारी ज़िन्दगी

कोई कैसा हो किसी के पास दो चेहरा न था

 

26.

कभी फूलों कभी खारों से बचना

सभी मश्कूक़ किरदारों से बचना

हरीफ़ों से भी मिलना गाहे गाहे

जहाँ तक हो सके यारों से बचना

जो मज़हब ओढ़कर बाज़ार निकलें

हमेशा उन अदाकारों से बचना

ग़रीबों में वफ़ा ह उनसे मिलना

मगर बेरहम ज़रदारों से बचना

हसद भी एक बीमारी है प्यारे

हमेशा ऐसे बीमारों से बचना

मिलें नाक़िद करना उनकी इज़्ज़त

मगर अपने परस्तारों से बचना

 

27.

सोच रहा हूँ घर आँगन में एक लगाऊँ आम का पेड़

खट्टा खट्टा, मीठा मीठा यानी तेरे नाम का पेड़

एक जोगी ने बचपन और बुढ़ापे को ऐसे समझाया

वो था मेरे आग़ाज़ का पौदा ये है मेरे अंजाम का पेड़

सारे जीवन की अब इससे बेहतर होगी क्या तस्वीर

भोर की कोंपल, सुबह के मेवे, धूप की शाख़ें , शाम का पेड़

कल तक जिसकी डाल डाल पर फूल मसर्रत के खिलते थे

आज उसी को सब कहते हैं रंज-ओ-ग़म-ओ-आलाम का पेड़

इक आँधी ने सब बच्चों से उनका साया छीन लिया

छाँव में जिनकी चैन बहुत था जो था जो था बड़े आराम का पेड़

नीम हमारे घर की शोभा जामुन से बचपन का रिश्ता

हम क्या जाने किस रंगत का होता है बादाम का पेड़

 

28.

मैं जा रहा हूँ मेरा इन्तेज़ार मत करना

मेरे लिये कभी भी दिल सोगवार मत करना

मेरी जुदाई तेरे दिल की आज़माइश है

इस आइने को कभी शर्मसार मत करना

फ़क़ीर बन के मिले इस अहद के रावन

मेरे ख़याल की रेखा को पार मत करना

ज़माने वाले बज़ाहिर तो सबके हैं हमदर्द

ज़माने वालों का तुम ऐतबार मत करना

ख़रीद देना खैलौने तमाम बच्चों को

तुम उनपे मेरा आश्कार मत करना

मैं एक रोज़ बहरहाल लौट आऊँगा

तुम उँगुलियों पे मगर दिन शुमार मत करना

 

29.

मेरी बस्ती के लोगो! अब न रोको रास्ता मेरा

मैं सब कुछ छोड़कर जाता हूँ देखो हौसला मेरा

मैं ख़ुदग़र्ज़ों की ऐसी भीड़ में अब जी नहीं सकता

मेरे जाने के फ़ौरन बाद पढ़ना फ़ातेहा मेरा

मैं अपने वक़्त का कोई पयम्बर तो नहीं लेकिन

मैं जैसे जी रहा हूँ इसको सनझो मोजिज़ा मेरा

वो इक फल था जो अपने तोड़ने वाले से बोल उटठा

अब आये हो! कहाँ थे ख़त्म है अब ज़ायक़ा मेरा

अदालत तो नहीं हाँ वक़्त देता है सज़ा सबको

यही है आज तक इस ज़िन्दगी मे तजुरबा मेरा

मैं दुनिया को समझने के लिये क्या कुछ नहीं करता

बुरे लोगों से भी रहता है अक्सर राब्ता मेरा

 

30.

ना बाम-ओ-दर न कोई सायबान छोड़ गये

मेरे बुज़ुर्ग खुला आसमान छोड़ गये

तमाम शहर के बच्चे यतीम भी तो नहीं

खिलौने वाले जो अपनी दुकान छोड़ गये

न जाने कौन सी वो मसलहत के क़ैदी थे

चला के तीर जो अपनी कमान छोड़ गये

सजा के फ़ुर्सतें अपनी पुराने क़ाग़ज़ पर

अजीब लोग थे इक दास्तान छोड़ गये

वो जिसको पढ़ता नहीं बोलते सब हैं

जनाबे मीर भी कैसी ज़बान छोड़ गये!

हमें गिला भी है “अनवर” तो सिर्फ़ उनसे है

जो लोग ख़ौफ़ से हिन्दोस्तान छोड़ गये

 

31.

जो लोग ही ख़ुद ही ग़ाफ़िले अँजाम हो गये
वो ज़िन्दगी की जंग में नाकाम हो गये

हालात के धुएँ में सफेदी भीथी मगर
कितने हसीन जिस्म सियह फ़ाम हो गये

हम सिर्फ़ तोहमतों की सफायी न दे सके
ख़ामोश रह के शहर में बदनाम हो गये

बस यह हुआ कि वक़्त ने तेवर बदल दिये
सुनी हवेलियों के दरो बाम हो गये

फिरजब कबूतरों ने बसेरे बना लिये
दहलीज़-ओ-दर बिके नहीं नीलाम हो गये

“अनवर” जिन्हें गुरूर था अपने उरूज का
वह भी शिकार-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो गये
32.

बचपने के दिन गये और उम्रे नादानी गयी

मुस्कुराने खेलने हँसने की आज़ादी गयी

ख़्वाहिशें पूरी हुईं तो और तनहा हो गये

हम समझते थे कि अपने दिल की वीरानी गयी

वक़्त जब बिगड़ा तो इतना फ़ायदा बेशक हुआ

कुछ पुराने दोस्तों की श्क्ल पहचानी गयी

ज़ाहरी ख़ामोशियों को देखकर ऐ हमनशीं

मत समझ लेना की दरियाओं की तुग़ियानी गयी

अब हमें क्या आप अपना ग़म सुनाने आये हैं

आप से पहले हमारी बात कब मानी गयी

जितनी ख़ुशहाली बढ़ी दिल का सुकूं कम हो गया

हम इसी में ख़ुश थे शायद अब परेशानी गयी

 

33.

साँप की ख़्वाहिश अजब है कभी मरता नहीं
दिल है अवारा, किसी जा ये ठहरता ही नहीं

प्यार सच्चा होता है समुन्दर जैसा
दूबने वाला कभी जिसमें उभरता ही नहीं

धूल के नाम से वह रा ह न वाक़िफ़ होगी
क़ाफ़िला जिससे कभी कोई गुज़रता ही नहीं

उसको शायद मेरे हालात से हमदर्दी है
मेरे सर पर कोई इल्ज़ाम वो धरता ही नहीं

ऐसा लगता है कि अब मुझपे भरोसा है उसे
अब कोई अहद वो कर ले तो मुकरता ही ही नहीं

बात का ज़ख़्म अजब ज़ख़्म है जिसका ‘अनवर’
दर्द घट जाये मगर ज़ख़्म तो भरता ही नहीं

 

34.

कुछ यक़ी, कुछ गुमान की दिल्ली
अनगिनत इम्तेहान की दिल्ली

मक़बरे तक नहीं सलामत अब
थी कभी आन बान की दिल्ली

ख़्वाब, क़िसा, ख़्याल, अफ़साना
हाय! उर्दू ज़बान की दिल्ली

बे ज़बानी का हो गयी शिकार
असदुल्लाह खान की दिल्ली

दर रहा था कि हो न जाय कहीं
एक ही ख़ानदान की दिल्ली

अहले दिलअको दिल समझते हैं
ये है हिन्दोस्तान की दिल्ली

 

35.

आँखों के आँसू पी जाना कितना मुश्किल है
खुद रोना औरों को रुलाना कितना मुश्किल है

जो इंसा जीने के हुनर से वाक़िफ़ हो
उसके चेहरे को पढ पाना कितना मुश्किल है

खुद को धोके में रखना है सहल मगर
खुद को सच्ची बात बताना कितना मुश्किल है

काश ये समझें घर को जलाने वाले भी
प्यार का बस इक दीप जलाना कितना मुश्किल है

जो नादां हो हालत-ए-दिल से नावाक़िफ़
वो रूठे तो उसको मनाना कितना मुश्किल है

जिन लोगों से ज़ेहन न मिलता हो ‘अनवर’
उन लोगों का साथ निभाना कितना मुश्किल है

 

36.

दिन को धूप में चलना, शब में मोम सा जलना, बस यही कहानी है
हम फ़क़ीर लोगों के, फूल से लड़कपन की, धूल सी जवानी है

फ़िक्र-ए-हाल-ओ-मुस्तक़बिल, बेयक़ीन सी मंज़िल,क़र्ब-ए-रूह-ओ-दर्द-ए- दिल
आस के ग़ुलिस्ताँ में, यास के बयाबाँ में, ज़िन्दगी गँवानी है

कैसी इज़्ज़त-वो-शोहरत, कैसा प्यार क्या चाहत, कैसी बेकरां दौलत
इसका क्या भरोसा है, इसका क्या ठिकाना है, यह तो आनी जानी है

बे सबात दुनिया में, हर गुरूर झूठा है, हर अना है बेक़ीमत
वक़्त ख़ुद बता देगा कौन कितना गहरा है, किसमें कितना पानी है

लोग घर के बाहर तो, अपना दुख छुपाते हैं, ख़ूब मुस्कुराते हैं
और घर के आँगन में, एक शक्ल बालिग़ है, दूसरी सयानी है

ख़ुदग़र्ज़ ज़मानें में, क्या बुलन्दी-वो-पस्ती, कैसी मौज और मस्ती
सबका एक अफ़साना, सबका एक ही क़िस्सा, सबकी एक कहानी है

ये जो मेरे सीने में एक टीस उठती है, कुछ दिनों से रह रह कर
इसका ज़ख़्म गहरा है, इसका दर्द मीठा है, चोट ये पुरानी है
37.

शहर भर के सभी बच्चों से मोहब्बत करना

मैनें सीखा है इसी तरह इबादत करना

तुम भी रहते हो जज़ीरे में तुम्हें याद रहे

भूल कर भी न समुन्दर से बग़ावत करना

मेरे हालात पे तुम रश्क़ तो करते हो मगर

तुमने देखा ही नहीं है मेरा मेहनत करना

रात भर जागना दिन नज़रे सफ़र कर देना

राह कोई भी हो तय सारी मसाफ़त करना

अपनी आँखों में सजाये हुए सीने का लहू

अपनी पलकों के सितारों की तिजारत करना

ख़ूँ छलक उठठेगा आँखों से जो घर छोड़ोगे

आम इंसानों के बस का नहीं हिजरत करना

सर कटाने के अदाब से वाक़िफ़ थे मगर

मेरे असलाफ़ ने सीखा नहीं बैय्यत करना

 

38.

शहर भर के सभी बच्चों से मोहब्बत करना

मैनें सीखा है इसी तरह इबादत करना

तुम भी रहते हो जज़ीरे में तुम्हें याद रहे

भूल कर भी न समुन्दर से बग़ावत करना

मेरे हालात पे तुम रश्क़ तो करते हो मगर

तुमने देखा ही नहीं है मेरा मेहनत करना

रात भर जागना दिन नज़रे सफ़र कर देना

राह कोई भी हो तय सारी मसाफ़त करना

अपनी आँखों में सजाये हुए सीने का लहू

अपनी पलकों के सितारों की तिजारत करना

ख़ूँ छलक उठठेगा आँखों से जो घर छोड़ोगे

आम इंसानों के बस का नहीं हिजरत करना

सर कटाने के अदाब से वाक़िफ़ थे मगर

मेरे असलाफ़ ने सीखा नहीं बैय्यत करना

 

39.

ये टूटी-फूटी सी तक़दीर जो है मेरी है

ये मेरे पाँव में ज़ंजीर जो है मेरी है

मैं जंग हार के भी मोतबर सिपाही हूँ

मेरी मियान में शमशीर जो है मेरी है

 

40.

कबीर-व-तुलसी-व-रसखान मेरे अपने हैं

विरासते ज़फ़र-व-मीर जो है मेरी है

मैं क़ायनात का अदना वजूद हूँ लेकिन

ज़मीँ फ़लक की ये जागीर जो है मेरी है

मैं आग भी हूँ, मैं पानी, हवा भी मिटटी भी

ये बूटे-बूटे पे तस्वीर जो है मेरी है

मैं अहदे नव का महिवाल भी हूं राँझा भी

वो सोहनी मेरी ये हीर जो है मेरी है

मैं दिल के दर्द को शेरों में ढाल देता हूँ

मेरी ग़ज़ल में ये तासीर जो है मेरी है

 

41.

दिलों में ज़ख़्म लबों पे हंसी ज़ियादा है

हमारे अहद में बे चेहरगी ज़ियादा है

जहाँ है प्यार वहीं रंजिशें भी देखोगे

जहां ग़रज़ है वहीं दोस्ती ज़ियादा है

न कोई रोने का मंज़र न क़क़हों की बहार

घुटन फ़ज़ाओं में शायद अभी ज़ियादा है

ख़िज़ा गर आई तो पहले उसी को चुन लेगी

वही जो शाख़ शज़र पर हरी ज़ियादा है

वहीं पे सुबह पतिंगों की लाश पाओगे

उसी गली में जहां रोश्स्नी ज़ियादा है

अभी महाज़ पे जाने की बत मत करना

अभी तुम्हारी सफ़ों में कजी ज़ियादा है

सभी लबों पे तबस्सुम सजाये हैं लेकिन

जो शहर-ए-दिल है वहाँ तीरगी ज़ियादा है

 

42.

दिल में तड़प रगों में हरारत नहीं रही

जो काम की थी अब वही दौलत नहीं रही

दिन रात जागने का सिला ये मिला के अब

आँखों को नींद से कोई रग़बत नहीं रही

ग़ैरों की हुक्मरानी पे तनक़ीद क्या करें

अपने ही दिल पे अपनी ह्कूमत नही रही

कुचली गयीं ज़माने में कुछ यूँ हक़ीक़तें

अब ख़्वाब देखने की हिम्मत नहीं रही

दिल की घुटन से सूरते इंसाँ बदल गयी

चेहरे पे वो पहली से रंगत नहीं रही

इअतना ग़में हयात ने मसरूफ़फ़ कर दिया

आईना देखने की भी फुरसत नहीं रही

बहरूपियों का दैर-ओ-हरम में है हुजूम

बे-लौस अब ख़ुदा की अब इबादत नहीं रही

 

43.

मैं अमीने दौलत-ए-इश्क़ हूँ, मेरे पास कोई भी धन नहीं

मैअं ज़मी पर चाहे जहाँ रहूँ मेरा अपना वतन कोई नहीं

मेरी जुगनुओं से है दोस्ती, मुझे तितलियों से भी प्यार है

ये जहां मिले ठहर गया मैं असीरे दस्त-वो-चमन नहीं

मुझे ग़म नहीं कि मैं लुट गया फ़क़त ऐतबार पे शहर में

मैं हर एक शख़्स पे शक करूँ मेरे गाँव का ये चलन नहीं

अभी तलक इसी शहर में जो सख़ी था हतिमे वक़्त था

मगर आज कैसी हवा चली वही मर गया तो कफ़न नहीं

अभी ज़िन्दगी की हक़ीकतें मेरे यार तुझ पर नहीं खुलीं

अभी दोस्तों मे हसद नहीं अभी दुश्मनों में जलन नहीं

अभी ज़ुल्म हद से बढ़ा नहीं अभी इनक़लाब में देर है

अभी दिल में क़ुव्वत-ए-ज़ब्त है अभी ज़िन्दगी में घुटन नहीं

मैं सफ़र समझता हूँ ज़ीस्त को मेरी मौत मंज़िले औवलीं

यही एक बात है दोस्तों मेरे पाँव में जो थकन नहीं

 

44.

जिस दिन मुल्के अदम का क़ासिद दरवाज़े पे आयेगा

उस दिन रूह का दिलकश पंछी पिजड़े से उड़ जायेगा

नेकी और किरदार की बातें किस मुँह से अब छेड़े कोई

इस हम्माम में सब नंगे हैं कौन किसे समझायेगा

ज़हर का जाम जो पी सकता हो आये वो खुलकर सच बोले

ऐसी जुरअत रखने वाला दीवाना कहलायेगा

कारोबारी हलत ऐसी ही किछ रोज़ रही तो इक दिन

बेटा बूढ़े बाप के हि स्से की रोटी खा जायेगा

उसको ही बेदर्द ज़माना जीने का ह्क़ दे सकता है

जो शीशे का दिल लेकर भी पत्थर से टकरायेगा

ग़ुरबत का फ़ौलादी बाजू जिस दिन खुद को पहचानेगा

चटटानें भी टुकड़े होंगी लोहा भी पिघलायेगा

‘अनवर’ तेरी हक़ गोई की तुझको सजायें मिल के रहेंगी

जिस दिन तुझ पर वक्त पड़ेगा कोई न तेरे काम आयेगा

 

45.

इंसान मसलेहत के सदा दायरों में था

सच बोलने का अज़्म तो बस आइनों मे था

मंज़िल पे आके सारे ग़मों से मिली नजात

जितना पेच-ओ-ख़म था फ़क़त रास्तों में था

शहरों के पेच-ओ-ख़म ने ये समझा दिया हमें

कितना सुकून गाँव के कच्चे घरों में था

तनक़ीद मुझपे की तो मेरे दोस्तों ने की

हद दर्जा रख-रखाव मेरे दुश्मनों में था

पीरों से मिल के आये तो महसूस यह हुआ

ये रंग-ढंग पहले तो जादूगरों में था

बालिग़ हुए तो कुनबों में तक़सीम हो गया

बचपन में जो भी प्यार सगे भाइयों में था

सद-हा किताबें पढ़ के भी हमको न मिल सका

वो दर्स घर के बूढ़ों के जो तजरुबों में था

जिस दिन मुल्के अदम का क़ासिद दरवाज़े पे आयेगा

उस दिन रूह का दिलकश पंछी पिजड़े से उड़ जायेगा

नेकी और किरदार की बातें किस मुँह से अब छेड़े कोई

इस हम्माम में सब नंगे हैं कौन किसे समझायेगा

 

46.

अपना ग़म सारे ज़माने को सुनायें किस लिये

पत्थरों के सामने आँसू बहायें किस लिये

जो हमारा साथ सारी उम्र दे सकता नहीं

वो अगर रुठा भी है तो हम मनायें किस लिये.

तजरुबों ने जिसकी फ़ितरत को नुमाया कर दिया

फिर उसी ज़ालिम को आख़िर आज़मायें किस किये

अब किसी बच्चे का मुस्तक़्बिल तो रौशन ही नहीं

अब दुआयें मांगती हैं माँयें किस लिये

हमने जब अपनी बरबादी का सा।माँ कर लिया

फिर हमारी सम्त आती हैं बलायें किस लिये

हर कोई मंज़र यहाँ एक आरज़ी तस्वीर है

ख़्वाब कोई अपनी आँखों मे सजाये किस लिये

ज़ेहन में आवारगी है, दिल में है दीवनगी

मसला यह है कि कोई घर बनाये किस लिये

 

47.

जो शख़्स ज़माने के ख़ुदाओं से लड़ा है

सुकरात हुआ है कभी सूली पे चढ़ा है

अल्लाह करम कर कि बहुत तेज़ हवा है

ग़ुरबत है सियह रात है बस एक दिया है

दौलत ने मेरे शहर को यूँ बाँट दिया है

बन्दा है अगर बेचे खरीदे तो खुदा है

साया जो तबर्रुक की तरह बाँट रहा है

मुद्दत से कड़ी धूप में वह पेड़ खड़ा है

हर लम्हा हर एक गाम मसायल की है ज़ंजीर

इस दौर में जीना भी कोई जैसे सज़ा है

लौट आये तो ज़िल्लत है बढ़े तो मुसीबत

एक शख़्स दोराहे पे खड़ा सोच रहा है

लोहे का जिगर जिसका था फ़ौलाद का बाजू

थक हार के उसने भी कफ़न ओढ़ लिया है

 

48.

दर्द अपना कभी औरों को सुनाया ही नहीं

मैने ख़ुद्दारी एहसास को बेचा ही नहीं

अब के मौसम में मेरे चाहने वालों कि क़सम

इतना पत्थर मेरे सर कभी बरसा ही नहीं

तुझको इसमें मेरी तस्वीर नज़र आ जाती

तूने ज़ालिम मेरे दिल में कभी झाँका ही नहीं

मेरे अपने भी बुरे वक़्त में कतरायेंगे

मैंने इस बात को पहले कभी सोचा ही नहीं

कामयाबी का तो हर शख़्स पहनता सेहरा

बात बिगड़ी हैतो कोई नज़र आता ही नहीं

आप इलज़ामों का यह बोझ मेरे सर रख दें

आप के पास तो लोहे का कलेजा ही नहीं

वह तो ज़हराब भी पी लेता है अमृत की तरह

अपने अनवर को कभी अप ने समझा ही नहीं

 

49.

जुल्म के हाथों पत्थर देखिये कब तक रहे

बिल मुक़ाबिल अपना ये सर देखिये कब तक रहे

बच मक़तल से अपने घर तो आ पहुँचे

ज़िन्दगी के सर पे चादर देखिये कब तक रहे

आज कल तन्हा सफ़र में दिल धड़कता है बहुत

बे यक़ीनी का ये मंज़र देखिये कब तक रहे

कब तलक सोते रहे हम आसमाँ को ओढ़ कर

और धरती का ये बिस्तर देखिये कब तक रहे

दस्त-ए इस्तेमाल की इक आहनी सन्दूक में

मुफ़सिलों के घर का ज़ेवर देखिये कब तक रहे

दब गयी थी भूल कर कल एक ची।ब्ती पांव से

इस गुनह का बोझ दिल पर देखिये कब तक रहे

मुफ़लिसी के साथ ख़ुद्दारी यक़ीनन ख़ब्त है

 

50.

उन्हीं लोगों से हंगामे बहुत हैं

वो जिनके हाथ में पैसे बहुत हैं

एक इन्साँ मौत के मुँह से बचा है

मगर ज़ेहनों में अन्देशे बहुत हैं

ख़ुदा महफूज़ रक्खे हर बला से”

हमारे शहर में फितने बहुत हैं

जो अपनीख़ुश लिबासी पर हैं नाज़ाँ

हक़ीक़त मे वह नंगे बहुत हैं

उन्हीँ के गिर्द है झूठों का मजमा

जिन्हें दावा है वो सछे बहुत हैं

बताएँ आवो हम रूदाद-ए-सेहरा

हमारे पाँव मे छाले बहुत हैं

हमारी भूक पर मत ध्यान दीजै

मगर सरकार हम प्यासे बहुत हैं

 

51.

जो दुनिया चाहती थी अब वह क़िस्सा ख़त्म होता है

हमारा और उनका आज रिश्ता ख़त्म होता है

बढ़ोगे और अब तो फिर क़ानून रोके गा

यहाँ से दोस्तो अपना इलाक़ा ख़त्म होता है

कोई गिरती हुई दीवार देखो और फिर सोचो

किसी मजबूर का कैसे सहारा ख़त्म होता है

ये दुनिया ख़ुश्क-ओ-तर का नाम है, सुनते हैं बचपन से

समन्दर अब ज़रूर आयेगा सहारा ख़त्म होता है

यहाँ सच बोलकर हम महफ़िले ज़िन्दाँ सजायेंगे

मिलेंगे फिर किसीम दिन आज जलसा ख़त्म होता है

यहाँ के बाद ता-हद्दे नज़र पानी ही पानी है

यहीं ठहरो कि अब आगे का रस्ता ख़त्म होता है

उसी लम्हे को हम अपनी ज़बाँ से मौत कहते हैं

कि जब बीमार का दुनिया से रिश्ता ख़त्म होता है

 

52.

आदमी दुनिया में अच्छा या बुरा कोई नहीं

सबकी अपनी मसलहत है बेवफ़ा कोई नहीं

हर तरफ़ ना-अहल लोगों की सजी है अंजुमन

क़ाफ़िलों की भीड़ है और रहनुमा कोई नहीं

किस जगह मैं सर झुकाऊँ मैं पत्थरों के शहर में

संग के पुतले बहुत हैं देवता कोई नहीं

अज़मतें उसको मिली क़ुदरत भी जिसके

हर किसेए को था नशा मुझसे बड़ा कोई नहीं

क़त्ल दो इक रहज़नी इसके अलावा शहर में

ख़ैरियत ही ख़ैरियत है हादसा कोई नहीं

कौन सी बस्ती में या रब तूने पैदा कर दिया

दुश्मनी पर सब हैं आमादा ख़फ़ा कोई नहीं

तीरगी में कारनामें जिनके रौशन हैं बहुत

रौशनी में उनसे बढ़कर पारसा कोई नहीं

अपना ग़म कहने से पहले सोच ले अनवर ज़रा

संग दिल माहौल में दर्द आशना कोई नहीं

 

53.

सैलाब अया डूब गयी फ़स्ल धान की

पानी के साथ बह ग्यी क़िस्मत किसान की

सूखा हुआ दरख़्त भी कुछ काम आ गया

ख़्वाहिश थी सख़्त धूप में एक सायबान की

उसको भी आके मौत ने मजबूरकर दिया

थी जिसकी सारी उम्र बड़ी आन बान की

सच्चाइयों की जीत यक़ीनी थी दोस्तों

बाज़ी मगर लगानी पड़ी इसमें जान की

इस बे यक़ीन दौर का क़ायद वही बने

रक्खे जो इस ज़मीन पे ख़बर आसमान की

फिर कोई भी कशिश उसे ठहरा नहीं सकी

मौसम के साथ उड़ गयी तितली भी लान की

बरसों का यार कोई बिछड़ता है जिस घड़ी

होती है वह घड़ी भी बड़े इम्तेहान की

 

54.

शादाब-ओ-शगुफ़्ता कोई गुलशन न मिलेगा

दिल खुश्क रहा तो कोई सावन न मिलेगा

तुम प्यार की सौग़ात लिये घर से तो निकलो

रस्ते में तुम्हें कोई भी दुश्मन न मिलेगा

अब ग़ुज़री हुई ही उम्र को आवाज़ न देना

अब धूल मे लिपटा हुआ बचपन न मिलेगा

अब नाम नहीं काम का क़ायल है ज़माना

अब नाम किसी शख़्स का रावन न मिलेगा

सोते हैं बहुत चैन से वो जिनके घरों में

मिटटी के अलावा कोई बरतन न मिलेगा

अब क़ैद में ख़ुश रहने के आदी हैं बड़े लोग

अब ऊँचे मकानात में आँगन न मिलेगा

चाहो तो मेरी आँखो को आईना बना लो

देखो तुम्हें ऐसा कोई दरपन न मिलेगा

 

55.

हम अगर हादसों से डर जाते

वक़्त से क़ब्ल हम भी मर जाते

आप ने कुछ कहा नहीं वरना

हँस के हम दार से गुज़र जाते

हम को आवारा कह रहे हो क्योँ

घर ही होता तो हम भी घर जाते

याद करती हमें भी ये दुनिया

काश वह काम हम भी कर जाते

आँच आये अना पे उससे क़ब्ल

घर ही होता तो हम भी घर जाते

नफ़रतों का हुजूम था हर सू

ढूँढने प्यार हम किधर लाते

एक बीमार कह रहा था कल

मौत आती तो चारागर जाते

तुम बुलाते हमें जो मक़तल में

लेके हम लोग अपना सर जाते

 

56.

हरदम आपस का यह झगड़ा मैं भी सोचूँ तू भी सोच

कल क्या होगा सहर का नक़्शा मैं भी सोचूँ तू भी सोच

दिल तूटा तो आँगन आँगन दीवारें उठ सकती हैं

इस रुख़ से भी जान-ए-तमन्ना, मैं भी सोचूँ तू भी सोच

प्यार की शबनम हर आयत में,प्रेम का अमृत हर इश्लोक

फिर क्यों इंसा ख़ून का प्यासा, मैं भी सोचूँ तू भी सोच

एक ख़ुदा के सब बंदे हैं एक आदम की सब औलाद

तेरा मेरा ख़ून का रिश्ता, मैं भी सोचूँ तू भी सोच

 

57.

हम काशी काबा के राही, हम क्या जाने झगड़ा बाबा

अपने दिल में सबकी उल्फ़त अपना सब से रिश्ता बाबा

प्यार ही अपना दीन धरम है प्यार ख़ुदा है प्यार सनम है

दोनों ही अल्लाह के घर हैं, मस्जिद हो कि शिवाला बाबा

हर इंसा में नूर-ए ख़ुदा है सारी किताबों में लिक्खा है

वेद हों या इंजील-ए मुक़द्दस, हो क़ुरान कि गीता बाबा

मर जाने के बाद तो सबका होता है अंजाम एक सा

दोनों के है एक ही मानी अर्थी हो कि जनाज़ा बाबा

“हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई आपस में सब भाई भाई”

हम जितने भारतवासी हैं सबका है ये नारा बाबा