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‘अज़ीज़’ वारसी

1.

तेरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने
कहाँ सहर हो कहाँ शाम हो ख़ुदा जाने

हरम हमीं से हमीं से हैं आज बुत-ख़ाने
ये और बात है दुनिया हमें न पहचाने

हरम की राह में हाइल नहीं हैं बुत-ख़ाने
हरम से अहल-ए-हरम हो गए हैं बेगाने

ये ग़ौर तू ने किया भी के हश्र क्या होगा
तड़प उट्ठे जो क़यामत में तेरे दीवाने

‘अज़ीज़’ अपना इरादा कभी बदल न सका
हरम की राह में आए हज़ार बुत-ख़ाने

2.

शीशा लब से जुदा नहीं होता
नश्शा फिर भी सिवा नहीं होता

दर्द-ए-दिल जब सिवा नहीं होता
इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता

हर नज़र सुर्मगीं तो होती है
हर हसीं दिल-रुबा नहीं होता

हाँ ये दुनिया बुरा बनाती है
वरना इंसाँ बुरा नहीं होता

असर-ए-हाज़िर है जब क़यामत-ख़ेज़
हश्र फिर क्यूँ बपा नहीं होता

पारसा रिंद हो तो सकता है
रिंद क्यूँ पारसा नहीं होता

शेर के फ़न में और बयाँ में ‘अज़ीज़’
मोमिन अब दूसरा नहीं होता

3.

ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ
बहर-आलम तुम्हारा ही करम महसूस करता हूँ

अलम अपना तो दुनिया में सभी महसूस करते हैं
मगर मैं हूँ के दुनिया का अलम महसूस करता हूँ

बस इतनी बात पर मोमिन मुझे काफ़िर समझते हैं
दर-ए-जानाँ को मेहराब-ए-हरम महसूस करता हूँ

अभी साक़ी का फ़ैज़-ए-आम शायद ना-मुकम्मल है
अभी कुछ इम्तियाज़-ए-बेश-ओ-कम महसूस करता हूँ

हरम वालों को अहल-ए-बुत-कदा कुछ भी समझते हों
मगर मैं बुत-कदे को भी हरम महसूस करता हूँ

मेरी तक़दीर से पहले संवारना जिन का मुश्किल है
तेरी ज़ुल्फ़ों में कुछ ऐसे भी ख़म महसूस करता हूँ

‘अज़ीज़’-ए-वारसी ये भी किसी का मुझ पे एहसान है
के हर महफ़िल में अब अपना भरम महसूस करता हूँ

4.

आख़िर-ए-शब वो तेरी अँगड़ाई
कहकशाँ भी फलक पे शरमाई

आप ने जब तवज्जोह फ़रमाई
गुलशन-ए-ज़ीस्त में बहार आई

दास्ताँ जब भी अपनी दोहराई
ग़म ने की है बड़ी पज़ीराई

सजदा-रेज़ी को कैसे तर्क करूँ
है यही वजह-ए-इज़्ज़त-अफ़ज़ाई

तुम ने अपना नियाज़-मंद कहा
आज मेरी मुराद बर आई

आप फ़रमाइए कहाँ जाऊँ
आप के दर से है शनासाई

उस की तक़दीर में है वस्ल की शब
जिस ने बर्दाश्त की है तन्हाई

रात पहलू में आप थे बे-शक
रात मुझ को भी ख़ूब नींद आई

मैं हूँ यूँ इस्म-ब-मुसम्मा ‘अज़ीज़’
वारिश-ए-पाक का हूँ शैदाई

5.

उस ने मेरे मरने के लिए आज दुआ की
या रब कहीं निय्यत न बदल जाए क़ज़ा की

आँखों में है जादू तेरी ज़ुल्फ़ों में है ख़ुश-बू
अब मुझ को ज़रूरत न दवा की न दुआ की

इक मुर्शिद-ए-बर-हक़ से है देरीना तअल्लुक़
परवाह नहीं मुझ को सज़ा की न जज़ा की

दोनों ही बराबर हैं रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा में
जब तुम ने वफ़ा की है तो हम ने भी वफ़ा की

ग़ैरों को ये शिकवा है के पीता है शब ओ रोज़
मै-ख़ाने का मुख़्तार तो अब तक नहीं शाकी

ये भी है यक़ीन मुझ को सज़ा वो नहीं देंगे
ये और भी है तस्लीम के हाँ मैं ने ख़ता की

इस दौर के इंसाँ को ख़ुदा भूल गया है
तुम पर तो ‘अज़ीज़’ आज भी रहमत है ख़ुदा की

6.

दिल में हमारे अब कोई अरमाँ नहीं रहा
वो एहतिमाम-ए-गर्दिश-ए-दौराँ नहीं रहा

पेश-ए-नज़र वो ख़ुस्रव-ए-ख़ूबाँ नहीं रहा
मेरी हयात-ए-शौक़ का सामाँ नहीं रहा

समझा रहा हूँ यूँ दिल-ए-मुज़्तर को हिज्र में
वो कौन है जो ग़म से परेशाँ नहीं रहा

देखा है मैं ने गेसू-ए-काफ़िर का मोजज़ा
तार-ए-नफ़स भी मेरा मुसलमाँ नहीं रहा

अश्कों के साथ साथ कुछ अरमाँ निकल गए
बे-चैनियों का दिल में वो तूफ़ाँ नहीं रहा

ऐ चारा-साज़ सई-ए-मुसलसल फ़ुज़ूल है
तेरा मरीज़ क़ाबिल-ए-दरमाँ नहीं रहा

उस की हयात उस के लिए मौत ऐ ‘अज़ीज़’
जिस पर के उस निगाह का एहसाँ नहीं रहा

7.

हर जगह आप ने मुमताज़ बनाया है मुझे
वाक़ई क़ाबिल-ए-एज़ाज़ बनाया है मुझे

जिस पर मर मिटने की हर एक क़सम खाता है
वही शोख़ी वही अंदाज़ बनाया है मुझे

वाक़ई वाक़िफ़-ए-इदराक-ए-दो-आलम तुम हो
तुम ने ही वाक़िफ़-ए-हर-राज़ बनाया है मुझे

जिस फ़साने का अभी तक कोई अंजाम नहीं
उस फ़साने का ही आग़ाज़ बनाया है मुझे

कभी नग़मा हूँ कभी धुन हूँ कभी लै हूँ ‘अज़ीज़’
आप ने कितना हसीं साज़ बनाया है मुझे

8.

तेरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा

यहाँ तो एक लैला के न जाने कितने मजनूँ हैं
यहाँ अपना गिरेबाँ अपना दामाँ कौन देखेगा

बहुत निकले हैं लेकिन फिर भी कुछ अरमान हैं दिल में
ब-जुज़ तेरे मेरा ये सोज़-ए-पिन्हाँ कौन देखेगा

अगर परदे की जुम्बिश से लरज़ता है तो फिर ऐ दिल
तजल्ली-ए-जमाल-ए-रू-ए-जानाँ कौन देखेगा

अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रत
हमारे बाद फिर अँदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा

मुझे पी कर बहकने में बहुत ही लुत्फ़ आता है
न तुम देखोगे तो फिर मुझ को फ़रहाँ कौन देखेगा

जिसे कहता है इक आलम ‘अज़ीज़’ वारिस-ए-आलम
उसे आलम में हैरान ओ परेशाँ कौन देखेगा