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अब्दुल हमीद आदम

1.

आप अगर हमको मिल गये होते

बाग़ में फूल खिल गये होते

आप ने यूँ ही घूर कर देखा

होंठ तो यूँ भी सिल गये होते

काश हम आप इस तरह मिलते

जैसे दो वक़्त मिल गये होते

हमको अहल-ए-ख़िरद मिले ही नहीं

वरना कुछ मुन्फ़ईल गये होते

उसकी आँखें ही कज-नज़र थीं “आदम”

दिल के पर्दे तो हिल गये होते

 

2.

बातें तेरी वो वो फ़साने तेरे

शगुफ़्ता शगुफ़्ता बहाने तेरे

बस एक ज़ख़्म नज़्ज़ारा हिस्सा मेरा

बहारें तेरी आशियाने तेरे

बस एक दाग़-ए-सज्दा मेरी क़ायनात

जबीनें तेरी आस्ताने तेरे

ज़मीर-ए-सदफ़ में किरन का मुक़ाम

अनोखे अनोखे ठिकाने तेरे

फ़क़ीरों का जमघट घड़ी दो घड़ी

शराबें तेरी बादाख़ाने तेरे

बहार-ओ-ख़िज़ाँ कम निगाहों के वहम

बुरे या भले सब ज़माने तेरे

“आदम” भी है तेरा हिकायतकदाह

कहाँ तक गये हैं फ़साने तेरे

 

3.

फूलों की आरज़ू में बड़े ज़ख़्म खाये हैं

लेकिन चमन के ख़ार भी अब तक पराये हैं

उस पर हराम है ग़म-ए-दौराँ की तल्ख़ियाँ

जिसके नसीब में तेरी ज़ुल्फ़ों के साये हैं

महशर में ले गैइ थी तबियत की सादगी

लेकिन बड़े ख़ुलूस से हम लौट आये हैं

आया हूँ याद बाद-ए-फ़ना उनको भी “आदम”

क्या जल्द मेरे सीख पे इमान लाये हैं

 

4.

मैकदा था चाँदनी थी मैं न था

इक मुजस्सम बेख़ुदी थी मैं न था

इश्क़ जब दम तोड़ता था तुम न थे

मौत जब सर धुन रही थी मैं न था

तूर पर छेड़ा था जिसने आप को

वो मेरी दीवांगी थी मैं न था

मैकदे के मोड़ पर रुकती हुई

मुद्दतों की तश्नगी थी मैं न था

मैं और उस ग़ुंचादहन की आरज़ू

आरज़ू की सादगी थी मैं न था

गेसूओं के साये में आराम-कश

सर-बरहना ज़िन्दगी थी मैं न था

रदै-ओ-काबा में “आदम” हैरत-फ़रोश

दो जहाँ की बदज़नी थी मैं न था

 

5.

जो लोग जान बूझ के नादान बन गये

मेरा ख़याल है कि वो इंसान बन गये

हम हश्र में गये मगर कुछ न पूछिये

वो जान बूझ कर वहाँ अन्जान बन गये

हँसते हैं हम को देख के अर्बाब-ए-आगही

हम आप की मिज़ाज की पहचान बन गये

मझधार तक पहुँचना तो हिम्मत की बात थी

साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गये

इन्सानियत की बात तो इतनी है शैख़ जी

बदक़िस्मती से आप भी इंसान बन गये

काँटे बहुत थे दामन-ए-फ़ितरत में ऐ “आदम”

कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गये

 

6.

फूलों की टहनियों पे नशेमन बनाइये

बिजली गिरे तो जश्न-ए-चराग़ाँ मनाइये

कलियों के अंग अंग में मीठा सा दर्द है

बीमार निकहतों को ज़रा गुदगुदाइये

कब से सुलग रही है जवानी की गर्म रात

ज़ुल्फ़ें बिखेर कर मेरे पहलू में आइये

बहकी हुई सियाह घटाओं के साथ साथ

जी चाहता है शाम-ए-अबद तक तो जाइये

सुन कर जिसे हवास में ठन्डक सी आ बसे

ऐसी कोई उदास कहानी सुनाइये

रस्ते पे हर क़दम पे ख़राबात हैं “आदम”

ये हाल हो तो किस तरह दामन बचाइये

 

7.

जब गर्दिशों में जाम थे

कितने हसीं अय्याम थे

हम ही न थे रुसवा फ़क़त

वो आप भी बदनाम थे

कहते हैं कुछ अर्सा हुआ

क़ाबे में भी असनाम थे

अंजाम की क्या सोचते

ना-वाक़िफ़-ए- अंजाम थे

अहद-ए-जवानी में “आदम”

सब लोग गुलअन्दां थे

 

8.

साग़र से लब लगा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

सहन-ए-चमन में आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

आ जाओ और भी ज़रा नज़दीक जान-ए-मन

तुम को क़रीब पाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

होता कोई महल भी तो क्या पूछते हो फिर

बे-वजह मुस्कुरा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

साहिल पे भी तो इतनी शगुफ़ता रविश न थी

तूफ़ाँ के बीच आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

वीरान दिल है और “आदम” ज़िन्दगी का रक़्स

जंगल में घर बनाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

 

9.

हँस के बोला करो बुलाया करो

आप का घर है आया जाया करो

मुस्कुराहट है हुस्न का ज़ेवर

रूप बढ़ता है मुस्कुराया करो

हदसे बढ़कर हसीन लगते हो

झूठी क़स्में ज़रूर खाया करो

हुक्म करना भी एक सख़ावत है

हम को ख़िदमत कोई बताया करो

बात करना भी बादशाहत है

बात करना न भूल जाया करो

ता के दुनिय की दिलकशी न घटे

नित नये पैरहन में आया करो

कितने सादा मिज़ाज हो तुम “आदम’’

उस गली में बहुत न जाया करो

 

10.

सुबू को दौर में लाओ बहार के दिन हैं

हमें शराब पिलाओ बहार के दिन हैं

ये काम आईन-ए-इबादत है मौसम-ए-गुल में

हमें गले से लगओ बहार के दिन हैं

ठहर ठहर के न बरसो उमड़ पड़ो यक दम

सितमगरी से घटाओ बहार के दिन हैं

शिकस्ता-ए-तौबा का कब ऐसा आयेगा मौसम

“आदम” को घेर के लाओ बहार के दिन हैं

 

11.

अपनी ज़ुल्फ़ों को सितारों के हवाले कर दो

शहर-ए-गुल बादागुसारों के हवाले कर दो

तल्ख़ि-ए-होश हो या मस्ती-ए-इदराक-ए-जुनूँ

आज हर चीज़ बहारों के हवाले कर दो

मुझ को यारो न करो रहनुमाओं के सुपुर्द

मुझ को तुम रहगुज़ारों के हवाले कर दो

जागने वालों का तूफ़ाँ से कर दो रिश्ता

सोने वालों को किनारों के हवाले कर दो

मेरी तौबा का बजा है यही एजाज़ “आदम”

मेरा साग़र मेरे यारों के हवाले कर दो

 

12.

सूरज की हर किरण तेरी सूरत पे वार दूँ

दोज़ख़ को चाहता हूँ कि जन्नत पे वार दूँ

इतनी सी है तसल्ली कि होगा मुक़ाबला

दिल क्या है जाँ भी अपनी क़यामत पे वार दूँ

इक ख़्वाब था जो देख लिया नीन्द में कभी

इक नीन्द है जो तेरी मुहब्बत पे वार दूँ

“आदम” हसीन नीन्द मिलेगी कहाँ मुझे

फिर क्यूँ न ज़िन्दगानी को तुर्बत पे वार दूँ

 

13.

तेरे दर पे वो आ ही जाते हैं

जिनिको पीने की आस हो साक़ी

आज इतनी पिला दे आँखों से

ख़त्म रिंदों की प्यास हो साक़ी

हल्क़ा हल्क़ा सुरूर है साक़ी

बात कोई ज़रूर है साक़ी

तेरी आँखें किसी को क्या देंगी

अपना अपना सुरूर है साक़ी

तेरी आँखों को कर दिया सजदा

मेरा पहला क़ुसूर है साक़ी

तेरे रुख़ पे ये परेशाँ ज़ुल्फ़ें

इक अँधेरे में नूर है साक़ी

तेरी आँखें किसी को क्या देंगी

अपना अपना सुरूर है साक़ी

पीने वालों को भी नहीं मालूम

मैकदा कितनी दूर है साक़ी

 

14.

अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे

दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे

या समात का भरम है या किसी नग़्में की गूँज

एक पहचानी हुई आवाज़ आती है मुझे

किसने खोला है हवा में गेसूओं को नाज़ से

नर्मरौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे

उस की नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर “आदम”

एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे

 

15.

अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे

दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे

या समात का भरम है या किसी नग़्में की गूँज

एक पहचानी हुई आवाज़ आती है मुझे

किसने खोला है हवा में गेसूओं को नाज़ से

नर्मरौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे

उस की नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर “आदम”

एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझ