दशहरा पर हम रावण को जलाते है और इस आग में अपनी तथा समाज की बुराईयों को भी जलाने का प्रण लेते है| कविता मन को निर्मल कर देती है, इसी उद्देश्य से हमने कुछ कवितायें आपके लिए प्रस्तुत की है, उम्मीद है आपको पसंद आयेंगी| कृपया अपनें परिवार और दोस्तों के साथ भी कवितायें शेयर करें|
काग़ज़ के रावण मत फूँको
अर्थ हमारे व्यर्थ हो रहे, पापी पुतले अकड़ खड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
कुंभ-कर्ण तो मदहोशी हैं, मेघनाथ भी निर्दोषी है
अरे तमाशा देखने वालों, इनसे बढ़कर हम दोषी हैं
अनाचार में घिरती नारी, हाँ दहेज की भी लाचारी-
बदलो सभी रिवाज पुराने, जो घर-घर में आज अड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
सड़कों पर कितने खर-दूषण, झपट ले रहे औरों का धन
मायावी मारीच दौड़ते, और दुखाते हैं सब का मन
सोने के मृग-सी है छलना, दूभर हो गया पेट का पलना
गोदामों के बाहर कितने, मकरध्वजों के जाल कड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
लखनलाल ने सुनो ताड़का, आसमान पर स्वयं चढ़ा दी
भाई के हाथों भाई के, राम राज्य की अब बरबादी।
हत्या, चोरी, राहजनी है, यह युग की तस्वीर बनी है-
न्याय, व्यवस्था में कमज़ोरी, आतंकों के स्वर तगड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
बाली जैसे कई छलावे, आज हिलाते सिंहासन को
अहिरावण आतंक मचाता, भय लगता है अनुशासन को
खड़ा विभीषण सोच रहा है, अपना ही सर नोच रहा है-
नेताओं के महाकुंभ में, सेवा नहीं प्रपंच बड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
-मनोहर सहदेव
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बहुत हो गया ऊँचा रावण
बहुत हो गया ऊँचा रावण, बौना होता राम,
मेरे देश की उत्सव-प्रेमी जनता तुझे प्रणाम।
नाचो-गाओ, मौज मनाओ, कहाँ जा रहा देश,
मत सोचो, कहे की चिंता, व्यर्थ न पालो क्लेश।
हर बस्ती में है इक रावण, उसी का है अब नाम।
नैतिकता-सीता बेचारी, करती चीख-पुकार,
देखो मेरे वस्त्र हर लिये, अबला हूँ लाचार।
पश्चिम का रावण हँसता है, अब तो सुबहो-शाम।
राम-राज इक सपना है पर देख रहे है आज,
नेता, अफसर, पुलिस सभी का, फैला गुंडा-राज।
डान-माफिया रावण-सुत बन करते काम तमाम।
महँगाई की सुरसा प्रतिदिन, निगल रही सुख-चैन,
लूट रहे है व्यापारी सब, रोते निर्धन नैन।
दो पाटन के बीच पिस रहा अब गरीब हे राम।
बहुत बढा है कद रावण का, हो ऊँचा अब राम,
तभी देश के कष्ट मिटेंगे, पाएँगे सुख-धाम।
अपने मन का रावण मारें, यही आज पैगाम।
कहीं पे नक्सल-आतंकी है, कही पे वर्दी-खोर,
हिंसा की चक्की में पिसता, लोकतंत्र कमजोर।
बेबस जनता करती है अब केवल त्राहीमाम।।
–गिरीश पंकज
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राम और रावण
इस बार रामलीला में
राम को देखकर-
विशाल पुतले का रावण थोड़ा डोला,
फिर गरजकर राम से बोला-
ठहरो!
बड़ी वीरता दिखाते हो,
हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो!
शर्म नहीं आती,
काग़ज़ के पुतले पर तीर चलाते हो।
मैं पूछता हूँ
क्या मारने के लिए केवल हमीं हैं
या तुम्हारे इस देश में ज़िंदा रावणों की कमी है?
प्रभो,
आप जानते हैं
कि मैंने अपना रूप कभी नहीं छिपाया है
जैसा भीतर से था
वैसा ही तुमने बाहर से पाया है।
आज तुम्हारे देश के ब्रम्हचारी,
बंदूके बनाते-बनाते हो गए हैं दुराचारी।
तुम्हारे देश के सदाचारी,
आज हो रहे हैं व्याभिचारी।
यही है तुम्हारा देश!
जिसकी रक्षा के लिए
तुम हर साल
कमान ताने चले आते हो?
आज तुम्हारे देश में विभीषणों की कृपा से
जूतों दाल बट रही है।
और सूपनखा की जगह
सीता की नाक कट रही है।
प्रभो,
आप जानते हैं कि मेरा एक भाई कुंभकर्ण था,
जो छह महीने में एक बार जागता था।
पर तुम्हारे देश के ये नेता रूपी कुंभकर्ण पाँच बरस में एक बार जागते हैं।
तुम्हारे देश का सुग्रीव बन गया है तनखैया,
और जो भी केवट हैं वो डुबो रहे हैं देश की बीच धार में नैया।
प्रभो!
अब तुम्हारे देश में कैकेयी के कारण
दशरथ को नहीं मरना पड़ता है,
बल्कि कम दहेज़ लाने के कारण
कौशल्याओं को आत्मदाह करना पड़ता है।
अगर मारना है तो इन ज़िंदा रावणों को मारो
इन नकली हनुमानों के
मुखौटों के मुखौटों को उतारो।
नाहक मेरे काग़ज़ी पुतले पर तीर चलाते हो
हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो।
मैं पूछता हूँ
क्या मारने के लिए केवल हमीं हैं
या तुम्हारे इस देश में ज़िंदा रावणों की कमी है?
–डॉ. अरुण प्रकाश अवस्थी
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आ गया पावन दशहरा
फिर हमें संदेश देने
आ गया पावन दशहरा
संकटों का तम घनेरा
हो न आकुल मन ये तेरा
संकटों के तम छटेंगें
होगा फिर सुंदर सवेरा
धैर्य का तू ले सहारा
द्वेष हो कितना भी गहरा
हो न कलुषित मन यह तेरा
फिर से टूटे दिल मिलेंगें
होगा जब प्रेमी चितेरा
फिर हमें संदेश देने
आ गया पावन दशहरा
बन शमी का पात प्यारा
सत्य हो कितना प्रताड़ित
रूप उसका और निखरे
हो नहीं सकता पराजित
धर्म ने हर बार टेरा
फिर हमें संदेश देने
आ गया पावन दशहरा
–सत्यनारायण सिंह
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कलियुगी रामलीला
रावण के प्रति हनुमान का उदार भाव देखकर
रामलीला का मैनेजर झल्लाया
हनुमान को पास बुलाकर चिल्लाया
क्यों जी? तुम रामलीला की मर्यादा तोड़ रहे हो
अच्छी ख़ासी कहानी को उल्टा किधर मोड़ रहे हो?
तुम्हें रावण को सबक सिखाना था
पर तुम उसके हाथ जोड़ रहे हो
हनुमान बना पात्र हँसा और बोला
भैया यह त्रेता की नहीं कलियुग की रामलीला है
यहाँ हर प्रसंग में कुछ न कुछ काला पीला है
मैं तो ठहरा नौकर मुझे क्या रावण क्या राम
जिसकी सत्ता उसका गुलाम
आजकल हमें जल्दी जल्दी मालिक बदलना पड़ता है
इसीलिए राम के साथ-साथ
रावण से भी मधुर संबंध रखना पड़ता है
मुझे अच्छी तरह मालूम है कि
यह रावण मरेगा तो है नहीं
ज़्यादा से ज़्यादा स्थान बदल लेगा
वह राम का कुछ बिगाड़ पाए या नहीं
किन्तु मेरा तो पक्का कबाड़ा कर देगा
अतः रावण हो या राम
हमें तो बस तनख्वाह से काम
जैसे आम के आम और गुठलियों के दाम
मैं ही नहीं सभी पाखंडी चालें चल रहे हैं
समय के हिसाब से सभी किरदार
अपनी भूमिका बदल रहे हैं
अब विभीषण को ही देखिए
कहने को तो रावण ने उसे लात मारी थी
पर वह उसकी राजनैतिक लाचारी थी
देखना अब विभीषण इतिहास नहीं दोहराएगा
मौका मिलते ही राम की सेना में दंगा करवाएगा
अब कुंभकर्ण भी फालतू नही मरना चाहता
फ्री की खाता है और
कोई काम भी नहीं करना चाहता
उसे अब नींद की गोली खाने के बाद भी
नींद नहीं आती
फिर भी जबरन सोता है
पर सोते हुए भी लंका की हर गतिविधि से वाकिफ़ होता है
इस बार उसकी भूमिका में भी परिवर्तन हो जाएगा
कुंभकर्ण लड़ेगा नहीं
जागेगा .खाएगा पिएगा और फिर सो जाएगा
अब अंगद में भी
आत्मविश्वास कहाँ से आएगा?
उसे मालूम है कि पैर अब
पूरी तरह जम नहीं पाएगा
कौन जाने भरी सभा के बीच
कब अपने ही लोग टाँग खींच दें
इसलिए उसे हमेशा युवराज बने रहना मंजूर नहीं है
यदि बालि कुर्सी छोड़ दे तो दिल्ली दूर नहीं है
वह अपनी सारी नैतिकता को
जमकर दबोच रहा है
आजकल वह बाली को खुद मारने की सोच रहा है
वह राजमुकुट अपने सिर पर धरना चाहता है
और बचा हुआ सुग्रीव का रोल खुद करना चाहता है
बूढ़े जामवंत भी अब थक गए हैं
अपने दल के अनुशासनहीन बंदरों के वक्तव्य सुनकर कान पक गए हैं
अब जामवंत का उपदेश नहीं सुना जाएगा
इस बार दल का नेता
कोई चुस्त चालाक बंदर चुना जाएगा
सुलोचना को भी
भरी जवानी में सती होना पसंद नहीं है
कहती है
साथ जीने का तो है पर मरने का अनुबंध नहीं है
इसलिए अब वह मेघनाद के साथ सती नहीं हो पाएगी
बल्कि उसकी विधवा बनकर
नारी जागरण अभियान चलाएगी
जटायु को भी अपना रोल बेहद खल रहा है
वह भी अपनी भूमिका बदल रहा है
अब वह दूर दूर उड़ेगा
रावण के रास्ते में नहीं आएगा
अपना फर्ज़ तो निभाएगा पर
अपने पंख नहीं कटवाएगा
मारीच ने भी अपने निगेटिव रोल पर
गंभीरता से विचार किया है
उसने सुरक्षा के लिए
बीच का रास्ता निकाल लिया है
वह सोने का मृग तो बनेगा
पर अन्दर बुलेटप्रूफ जाकिट पहनेगा
राम का बाण लगते ही गिर जाएगा
लक्ष्मण को चिल्लाएगा और धीरे से भाग जाएगा
अभी परसों ही शूर्पनखा की नाक कटी है
बड़ी मुश्किल से
अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से पीछे हटी है
पर भूलकर भी यह मत समझना कि
अब वह दोबारा नहीं आएगी
कटी नाक लेकर अब वह
लंका नहीं सीधे अमेरिका जाएगी
किसी बड़े अस्पताल में प्लास्टिक सर्जरी करवाएगी
और नया चेहरा लेकर फिर एक बार
अपनी भूमिका दोहराएगी
यों तो शूर्पनखा के कारनामे जग जाहिर हैं
पर करें क्या
खर और दूषण राम की पकड़ से बाहर हैं
यदि शूर्पनखा से बचना है तो
उसकी नाक नहीं जड़ें काटना होगी
अब लक्ष्मण को बाण नहीं तोप चलानी होगी
ऐसी परिस्थिति में राम को भी
मर्यादा के बंधन छोड़ना पड़ेंगे
रावण को मारना है तो
सारे सिद्धांत छोड़ना पड़ेंगे
–शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
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दशहरे के दोहे
भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य।
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य।।
आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ।
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ।।
मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत।
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत।।
शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान।
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान।।
राम वही आराम हो। जिसको सदा हराम।
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम।।
दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान।
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान।।
सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प।
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प।।
हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ।
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ।।
कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान।
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान।।
हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास।
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास।।
रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार।
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार।।
अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच।
धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच।।
राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत।
सत्य सहाय सदा रहे, आशा हो संत-दिगंत।।
दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व।
राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व।।
आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास।
द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास।।
रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति।
राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति।।
मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम।
शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम।।
शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्।
शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात।।
माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख।
लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख।।
सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व।
'सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व।।
कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब।
उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब।।
सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन।
बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें ही तू लीन।।
शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य।
सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य।।
सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार।
अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार।।
जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ।
कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ।।
जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल।
छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल।।
रावण के सर हैं ताने, राघव का नत माथ।
रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ।।
देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ।
बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ।।
निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम।
रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम।।
राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम।
'सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम।।
–आचार्य संजीव सलिल
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फिर से राम चले वन पथ पर
अंधकार
ये कैसा छाया
सूरज भी रह गया
सहमकर
सिंहासन पर रावण बैठा
फिर से
राम चले वन पथ पर
लोग कपट के
महलों में रह, सारी
उमर बिता देते हैं
शिकन नहीं आती माथे पर
छाती और फुला लेते हैं
कौर लूटते हैं भूखों का
फिर भी
चलते हैं इतराकर
दरबारों में
हाजि़र होकर, गीत
नहीं हम गाने वाले
चरण चूमना नहीं है आदत
ना हम शीश झुकाने वाले
मेहनत की सूखी रोटी
भी हमने
खाई थी गा गाकर
दया नहीं है
जिनके मन में
उनसे अपना जुड़े न नाता
चाहे सेठ मुनी ज्ञानी हो
फूटी आँख न हमें सुहाता
ठोकर खाकर गिरते पड़ते
पथ पर
बढ़ते रहे सँभलकर
–रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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विजयदशमी में
विजयदशमी में राघव फिर धराशायी करें रावण,
मिटाएँ पाप हर संताप हो जाए धरा पावन।
इसी आशा में प्राणी आँसुओं को पोंछते आए,
अनाचारी सितम जुल्मी पुलिंदा ओढ़ते आए।
कभी तो अंत हो उनका जहाँ का साफ़ हो दामन,
विजयदशमी में राघव फिर धराशायी करें रावण।
अगर मिट जाएँ पीड़ाएँ, सितम मिट जाए बरबादी,
मिले चोरी, डकैती, खौफ़ नफ़रत दुख से आज़ादी।
पढ़े गुरुग्रंथ, बायबिल बाँच ले कुरान, रामायण,
विजयदशमी में राघव फिर धराशायी करें रावण।
रहें भूखा न कोई आए सबके घर में खुशहाली,
भले कर्मों की जय हो देख हो दुष्कर्म से खाली।
यही संदेश देता है दशहरा सबका मनभावन,
विजयदशमी में राघव फिर धराशायी करें रावण।
–डॉ. सुरेश प्रकाश शुक्ल
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रावण के राज में
मेरी नन्ही-सी
बिटिया मुनमुन,
अक्सर विचारों को
लेती है बुन,
मैंने उसे रावण का
पुतला दिखाया,
देखते ही उसने
प्रश्न दनदनाया,
"पापा, रावण अंकल के
दस सीस,
आँखें बीस,
सुबह उठकर अपनी
कौन-सी आँखें
धोते होंगे,
बेचारे बीस-बीस
आँखों से
कैसे रोते होंगे?
मैंने कहा, "बेटी,
तू नाहक विचारों में
खोती है,
रावण के राज में
रावण नहीं
प्रजा रोती है।"
–पीयूष पाचक
स्वर्ण लंकाएँ
क्या करोगे
अब बनाकर सेतु सागर पर
राजपथों पर खड़ी हैं स्वर्णलंकाएँ।
पाप का रावण
चढ़ा है स्वर्ण के रथ पर,
हो रहा जयगान उसका
पुण्य के पथ पर,
राक्षसों ने पाँव फैलाए गली-कूचे
आज उनसे स्वर मिलाती हैं अयोध्याएँ।
राम तो अब हैं नहीं
उनके मुखौटे हैं,
सती साध्वी के चरण
हर ओर मुड़ते हैं,
कैकई की छाँह में हैं मंथरायें भी
नाचती हैं विवश होकर राज सत्ताएँ।
दर्द के साये
हवा के साथ चलते हैं,
सत्य के पथ पर
सभी के पाँव जलते हैं,
घूमती माँएँ अशोक वाटिकाओं में
अब नहीं होती धरा पर अग्नि परीक्षाएँ।
आम जनता रो रही है
ख़ास लोगों से,
युग-मनीषी खेलते हैं
स्वप्न-भोगों से,
अब नहीं लव-कुश लड़ें अस्तित्व की ख़ातिर
छूटती हैं हाथ से अभिशप्त वल्गाएँ
–डॉ. ओमप्रकाश सिंह
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स्वर्ण हिरण
स्वर्ण हिरण छलता है
पग-पग पर
राम और सीता को फिर मारीच दलता है
इच्छाएँ उड़ती हैं
तितली-सी क्षणभंगुर
बार-बार
रंगों को यहाँ वहाँ चमकाती
मन है कि आवारा
मोह के बवंडर में ओर छोर जलता है
स्वर्ण हिरण छलता है
निराशाएँ छाती हैं
मकड़ी के जालों-सी
तार-तार
सब अदृश्य जहाँ तहाँ फैलाती
जीव है कि बेचारा
होनी के बंधन में सर्प-सा मचलता है
स्वर्ण हिरण छलता है
मौसम बदलते हैं
विजयपर्व संग लिए
दिशा-दिशा
उत्सव को घर-घर में बिखराते
आस दीप उजियारा
दुख के अंधियारे में जगर मगर जलता है
सुख सुहाग पलता है
सब अनिष्ट टलता है
–पूर्णिमा वर्मन