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वो भी शायद रो पडे वीरान काग़ज़ देख कर….

वो भी शायद रो पडे वीरान काग़ज़ देख कर
मैंने उस को आखिरी खत में लिख़ा कुछ भी नहीं


मजंमून सूझते हैं हज़ारों नए नए
क़ासिद ये ख़त नहीं मिरे ग़म की किताब है


पहली बार वो ख़त लिक्ख़ा था
जिस का जवाब भी आ सकता था


तिरा ख़त आने से दिल को मेरे आराम क्या होगा
ख़ुदा जाने कि इस आग़ाज का अंजाम क्या होगा


खुलेगा किस तरह मजंंमू मिरे मत्कूब का या रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज के जलाने क़ी


खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के