फ़िसादो दर्द और दहशत में जीना
मिला यह आदमी को आदमी सेबुरा कहते हैं हम क्यों किस्मतों को
बढ़ी हैं रंजिशें अपनी कमी से
वतन ऐसा जलाया बिजलियों ने
सहम जाते हैं अब हम रोशनी से
जहाँ गुज़रा था एक बचपन सुहाना
वह दर छूटा है कितनी बेदिली से
न जब कोई तुम्हारे पास होगा
बहुत पछताओगे मेरी कमी से
कभी तो यह हक़ीकत मान लोगे
तुम्हें चाहा है मैंने सादगी से
हुई सब ग़र्क़ वो ख़्वाहिश ‘रज़ा’ की
सुनाएँ किया तुम्हें अपनी ख़ुशी से
2.
छोटी सी बिगड़ी बात को सुलझा रहे हैं लोग
ये और बात है कि यूँ, उलझा रहे हैं लोग
चर्चा तुम्हारा बज़्म में ग़ैरों के इर्द-गिर्द
कुछ इस तरह से दिल मेरा बहला रहे हैं लोग
अरमां नये, साहिल नये, सब सिलसिले नये
उजड़े हुए दयार से, दिखला रहे हैं लोग
कहते हैं कभी इश्क़ था, अब रख-रखाओ है
फिर आज क्यों यूँ देख कर, शर्मा रहे हैं लोग
हमने ख़ुद अपने ज़ुर्म का इकरार कर लिया
अब क्यों ”रज़ा” से इस क़दर कतरा रहे हैं लोग
3.
फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको
ख़ौफ़ और दर्द ने क्योंकर यूँ झिंझोड़ा मुझको
मैं सोया हुआ था ख़ाक़ के उस बिस्तर पर
जिस पर हर जिस्म नयी ज़िन्दगी ले लेता है
बस ख्यालों में नहीं असल में सो लेता है
आँख खुलते ही एक मौत का मातम देखा
अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा
किस क़दर ख़ौफ़ ज़दा चीख़ा की आवाज़ थी वो
बूढ़ी बेवा की दम तोड़ती औलाद थी वो
एक बिलखते हुये मासूम की किलकार थी वो
कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो
मुझको याद आया फिर एक बार वो बचपन मेरा
कुहरे की धुंध में लिपटा हुआ सपना मेरा
तब हम एक थे इन्सानियत की छाँव तले
अब हम अनेक हैं हैवानियत के पाँव तले
तब हम सोचते थे सब्ज़ और ख़ुशहाल वतन
अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन
तब फूल थे खुशियाँ थीं और हम सब थे
अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम
तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये
अब तो मरते हैं हम और तुम सिर्फ़अपने लिये
अब न वो इन्सान रहा और न वो भगवान रहा
बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा
देख लो सोचलो शायद सम्भल पाओगे
क्यों जुदा करते हे रुह से जिस्म “रज़ा”
क्या कभी इस तरह तुम चैन से सो पाओगे
4.
शायद तुमने फिर याद किया चिठ्ठी का रंग बतलाता है
कोयल की गूँजी कु कू ने हर गीत मेरा दोहराया हो
बीते बचपन की यादों में क्यों बिछड़ा पल तड़पाता है
फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको
खौफ और र्दद ने क्योंकर यूँ झिंझोड़ा मुझको
मैं तो सोया हुआ था खाक़ के उस बिस्तर पर
जिस पर हर जिस्म नयीं ज़िन्दगी ले लेता है
बस ख्.यालों में नहीं अस्ल में सो लेता है
ऑख खुलते ही एक मौत का मातम देखा
अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा
किस क़दर खौफ़ ज़दा चीख़ की आवाज़ थी वो
बूढी .बेवा की दम तोड़ती औलाद थी वो
एक बिलख़ते हुये मासूम की किलकार थी वो
कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो
मुझको याद आया फिर एक बार वो बचपन मेरा
कुहर की धॅुंंध में लिपटा हुआ सपना मेरा
तब हम एक थे इन्सानियत की छॉव तले
अब हम अनेक हैं हैवानियत के पॉव तले
तब हम सोचते थे सब्ज़ और खुशहाल वतन
अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन
तब फूल थे खु.शियॉ थीं और हम सब थे
अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम
तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये
अब तो मरते हैं हम और तुम र्सिफ़ अपने लिये
अब न वो इनसान रहा और न वो भगवान रहा
बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा
देख लो सोचलो शायद तुम सम्भल पाओगे
रूह और जिस्म के रिश्तों को समझ पाओगे
क्यों जुदा करते हो रूह से जिस्म “रज़ा”
मिला यह आदमी को आदमी सेबुरा कहते हैं हम क्यों क़िस्मतों को
बढ़ी हैं रंजिशे अपनी कमी से
वतन ऐसा जलाया बिजलियों ने
सहम जाते हैं अब हम रोशनी से
जहाँ गुज़रा था एक बचपन सुहाना
वो दर छूटा है कितनी बेदिली से
न जब कोई तुम्हारे पास होगा
बहुत पछताओगे मेरी कमी से
कभी तो यह हकीक़त मान लोगे
तुम्हें चाहा है मैंने सादगी से
हुईं सब ग़र्क वो ख्वाहिश ‘रज़ा’ की
सुनाऐं क्या तुम्हें अपनी खुशी से