जन्म १९०९ में तलवंडी मूसा खाँ (पाकिस्तान ) || निधन १९६८
उन्होंने बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की और पाकिस्तान सरकार के ऑडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में ऊँचे ओहदे पर रहे।
1.
सूरज की हर किरन तेरी सूरत पे वार दूँ
दोजख़ को चाहता हूँ कि जन्नत पे वार दूँ
इतनी सी है तसल्ली कि होगा मुक़ाबला
दिल क्या है जां भी अपनी क़यामत पे वार दूँ
इक ख़्वाब था जो देख लिया नींद में कभी
इक नींद है जो तेरी मुहब्बत पे वार दूँ
‘अदम‘ हसीन नींद मिलेगी कहाँ मुझे
फिर क्यूँ न ज़िन्दगानी को तुर्बत पे वार दूँ
2.
तेरे दर पे वो आ ही जाते हैं
जिन को पीने की आस है साक़ी
आज इतनी पिला दे आँखों से
ख़त्म रिन्दों की प्यास हो साक़ी
हल्का हल्का सुरूर है साक़ी
बात कोई ज़रूर है साक़ी
तेरी आँखें किसी को क्या देंगी
अपना अपना सुरूर है साक़ी
तेरी आँखों को कर दिया सजदा
मेरा पहला कुसूर है साक़ी
तेरे रुख़ पे ये परेशां ज़ुल्फें
इक अन्धेरे में नूर है साक़ी
पीने वालों को भी नहीं मालूम
मैकदा कितनी दूर है साक़ी
3.
ऐ यार-ए-ख़ुश ख़राम ज़माना ख़राब है
हर कुन्ज में है दाम ज़माना ख़राब है
मलबूस ज़द में है हवास की जवान परी
क्या शेख़ क्या इमाम ज़माना ख़राब है
उड़ती हैं सूफ़ियों के लिबादों में बोतलें
अरबाब-ए-इन्तज़ाम ज़माना ख़राब है
सैर-ए-चमन को गेसू-ए-मुश्कीं बिख़ेर कर
जाओ न वक्त-ए-शाम ज़माना ख़राब है
कह तो रहा हूँ उनसे बड़ी देर से ‘अदम‘
कर लो यहीं क़याम ज़माना ख़राब है
4.
साग़र से लब लगा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
सहन-ए-चमन में आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
आ जाओ और भी ज़रा नज़दीक जान-ए-मन
तुम को करीब पाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
होता कोई महल भी तो क्या पूछते हो
फिरबे-वजह मुस्कुरा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
साहिल पे भी तो इतनी शगुफ़्ता रविश है
तूफ़ां के बीच आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
वीरान दिल है और ‘ज़िन्दगी‘ का रक़्स
जंगल में घर बनाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
5.
फूलों की टहनियों पे नशेमन बनाइये
बिजली गिरे तो जश्ने-चिरागां मनाइये
कलियों के अंग अंग में मीठा सा दर्द है
बिमार निकाहतों को ज़रा गुदगुदाइये
कब से सुलग रही है जवानी की गर्म रात
ज़ुल्फें बिखेर कर मेरे पहलू में आईये
बहकी हुई सियाह घटाओं के साथ साथ
जी चाहता है शाम-ए-अबद तक तो जाईये
सुन कर जिस हवास में ठंडक सी आ बसे
ऐसी काई उदास कहानी सुनाईये
रस्ते पे हर कदम पे ख़राबात हैं ”अदम”
ये हाल हो तो किस तरह दामन बचाईये
6.
अपनी ज़ुल्फों को सितारों के हवाले कर दो
शहर-ए-गुल बादा गुसारों के हवाले कर दो
तल्ख़ी-ए-होश हो या मस्ती-ए-इदराक-ए-जनूं
आज हर चीज़ बहारों के हवाले कर दो
मुझको यारो ना करो राह-नुमांओं के सपुर्द
मुझको तुम राह-गुज़ारों के हवाले कर दो
जागने वालों का तूफ़ां से कर दो रिश्ता
सोने वालों को किनारों के हवाले कर दो
मेरी तौबा का बजा है यही एजाज़ “अदम”
मेरा साग़र मेरे यारों के हवाले कर दो
7.
जो लोग जान बूझ के नादान बन गए
मेरा ख़्याल है कि वो इन्सान बन गए
हम हश्र में गए मगर कुछ न पूछिए
वो जान बूझ कर वहाँ अनजान बन गए
हँसते हैं हम को देख के अर्बाब-ए-आग,
हम आप की मिज़ाज की पहचान बन गए
इन्सानियत की बात तो इतनी है शेख़ जी
बदक़िस्मती से आप भी इन्सान बन गए
काँटे बहुत थे दामन-ए-फ़ितरत में ऐ “अदम”
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए
8.
अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे
या समात का भरम है या किसी नग़में की गूँज
एक पहचानी हई आवाज़ आती है मुझे
किस ने खोला है हवा में ग़ेसूओं को नाज़ से
नरम रो बरसात की आवाज़ आती है मुझे
उसकी नाज़ुक उँगलियों को देख कर अकसर “अदम”
एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे