1.
मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
छोटी छोटी बातों में दिलचस्पी लेना
जज़्बों के दो घूँट अक़ीदों[1] के दो लुक़मे[2]
आगे सोच का सेहरा[3] है कुछ खा-पी लेना
नर्म नज़र से छूना मंज़र की सख़्ती को
तुन्द हवा से चेहरे की शादाबी[4] लेना
आवाज़ों के शहर से बाबा! क्या मिलना है
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी लेना
महंगे सस्ते दाम हज़ारों नाम थे जीवन
सोच समझ कर चीज़ कोई अच्छी सी लेना
दिल पर सौ राहें खोलीं इनकार ने जिसके
‘साज़’ अब उस का नाम तशक्कुर[5] से ही लेना
शब्दार्थ:
↑ श्रद्धाओं
↑ निवाले
↑ रेगिस्तान
↑ ताज़गी
↑ शुक्रिया / धन्यवाद
2.
मैं ने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ
ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ
मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर अगर
उस की पलकों से जो टूटे वो सितारा हो जाऊँ
लेकर इक अज़्म[1] उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ
फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ
जब तलक महवे-नज़र[2] हूँ मैं तमाशाई[3] हूँ
टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ
मैं वो बेकार सा पल हूँ न कोइ शब्द न सुर
वह अगर मुझ को रचाले तो ‘हमेशा’ हो जाऊँ
आगही[4] मेरा मरज़[5] भी है मुदावा भी है ‘साज़’
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
शब्दार्थ:
↑ पक्का इरादा
↑ देखने में मगन
↑ दर्शक
↑ ज्ञान
↑ बीमारी
3.
दूर से शहरे-फ़िक्र[1] सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है
साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल[2] चुकाना लगता है
बीच नगर दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है
उम्र ज़माना शहर समंदर घर आकाश
ज़हन[3] को इक झटका रोज़ाना लगता है
बे-मक़सद[4] चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है
क्या असलूब[5] चुनें किस ढब इज़हार करें
टीस नई है दर्द पुराना लगता है
होंट के ख़म[6] से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
शब्दार्थ:
↑ ज्ञान का नगर
↑ टैक्स
↑ दिमाग़
↑ बिना लक्ष्य के
↑ अंदाज़
↑ मोड़
4.
जागती रात अकेली-सी लगे
ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे
रुप का रंग-महल ये दुनिया
एक दिन सूनी हवेली-सी लगे
हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे
शायरी तेरी सहेली-सी लगे
मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल
मुझ को हर रात नवेली-सी लगे
रातरानी सी वो महके ख़ामोशी
मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे
फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची
ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे
5.
ख़ुद को औरों की तवज्जुह[1] का तमाशा न करो
आइना देख लो अहबाब[2] से पूछा न करो
वह जिलाएंगे तुम्हें शर्त बस इतनी है कि तुम
सिर्फ जीते रहो जीने की तमन्ना न करो
जाने कब कोई हवा आ के गिरा दे इन को
पंछियो! टूटती शाख़ों पे बसेरा न करो
आगही[3] बंद नहीं चंद कुतुब-ख़ानों[4] में
राह चलते हुए लोगों से भी याराना करो
चारागर![5] छोड़ भी दो अपने मरज़ पर हम को
तुम को अच्छा जो न करना है तो अच्छा न करो
शेर अच्छे भी कहो सच भी कहो कम भी कहो
दर्द की दौलते-नायाब [6] को रुसवा न करो
शब्दार्थ:
↑ ध्यान देना
↑ दोस्तों
↑ ज्ञान
↑ पुस्तकालय
↑ चिकित्सक
↑ अमूल्य / मुश्किल से मिलने वाली दौलत
6.
खिले हैं फूल की सूरत तेरे विसाल के दिन
तेरे जमाल की रातें, तेरे ख़्याल के दिन
नफ़स नफ़स नई तहदारियों में ज़ात की खोज
अजब हैं तेरे बदन, तेरे ख़त-ओ-ख़ाल*के दिन
ख़रीद बैठे हैं धोके में जिंस-ए-उम्र-ए-दराज़
हमें दिखाए थे मकतब*ने कुछ मिसाल के दिन
ये ज़ौक़-ए-शे’र, ये जब्र-ए-मआश*यक जा हैं
मेरे उरूज की रातें, मेरे ज़वाल के दिन
ये तजरुबात की वुसअत, ये क़ैद-ए-हर्फ़-ओ-सदा
न पूछ कैसे कड़े हैं ये अर्ज़-ए-हाल के दिन
मैं बढ़ते-बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
के गिन के रख दिए तूने मेरी मजाल के दि