जन्म: 23 अगस्त 1934, बदायूँ (उत्तरप्रदेश) कुछ प्रमुख कृतियाँ: मैं साज ढूंढती रही, गज़ालां तुम तो वाकिफ़ हो 1. हर एक हर्फ़-ए-आरज़ू को दास्ताँ किये हुए ज़माना हो गया है उन को महमाँ किये हुए सुरूर-ए-ऐश तल्ख़ि-ए-हयात ने भुला दिया दिल-ए-हज़ीं है बेकसी को हिज्र-ए-जाँ किये हुए कली कली को गुलिस्ताँ किये हुए वो आयेंगे वो आयेंगे कली कली को गुलिस्ताँ किये हुए सुकून-ए-दिल की राहतों को उन से माँग लूँ सुकून-ए-दिल की राहतों को बेकराँ किये हुए वो आयेंगे तो आयेंगे जुनून-ए-शौक़ उभारने वो जायेंगे तो जायेंगे तबाहियाँ किये हुए मैं उन की भी निगाह से छुपा के उन को देख लूँ कि उन से भी है आज रश्क बदगुमाँ किये हुए 2. न ग़ुबार में न गुलाब में मुझे देखना मेरे दर्द की आब-ओ-तब में मुझे देखना किसी वक़्त शाम मलाल में मुझे सोचना कभी अपने दिल की किताब में मुझे देखना किसी धुन में तुम भी जो बस्तियों को त्याग दो इसी रह-ए-ख़ानाख़राब में मुझे देखना किसी रात माह-ओ-नजूम से मुझे पूछना कभी अपनी चश्म पुरआब में मुझे देखना इसी दिल से हो कर गुज़र गये कई कारवाँ की हिज्रतों के ज़ाब में मुझे देखना मैं न मिल सकूँ भी तो क्या हुआ के फ़साना हूँ नई दास्ताँ नये बाब में मुझे देखना मेरे ख़ार ख़ार सवाल में मुझे ढूँढना मेरे गीत में मेरे ख़्वाब में मुझे देखना मेरे आँसुओं ने बुझाई थी मेरी तश्नगी इसी बरगज़ीदा सहाब में मुझे देखना वही इक लम्हा दीद था के रुका रहा मेरे रोज़-ओ-शब के हिसाब में मुझे देखना जो तड़प तुझे किसी आईने में न मिल सके तो फिर आईने के जवाब में मुझे देखना 3. आख़िरी टीस आज़माने को जी तो चाहा था मुस्कुराने को याद इतनी भी सख़्तजाँ तो नहीं इक घरौंदा रहा है ढहाने को संगरेज़ों में ढल गये आँसू लोग हँसते रहे दिखाने को ज़ख़्म-ए-नग़्मा भी लौ तो देता है इक दिया रह गया जलाने को जलने वाले तो जल बुझे आख़िर कौन देता ख़बर ज़माने को कितने मजबूर हो गये होंगे अनकही बात मुँह पे लाने को खुल के हँसना तो सब को आता है लोग तरसते रहे इक बहाने को रेज़ा रेज़ा बिखर गया इन्साँ दिल की वीरानियाँ जताने को हसरतों की पनाहगाहों में क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को हाथ काँटों से कर लिये ज़ख़्मी फूल बालों में इक सजाने को आस की बात हो कि साँस आद ये ख़िलौने हैं टूट जाने को 4. शायद अभी है राख में कोई शरार भी क्यों वर्ना इन्तज़ार भी है इज़्तिरार भी ध्यान आ गया है मर्ग-ए-दिल-ए-नामुराद का मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी अब ढूँढने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो हद्द-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी हर आस्ताँ पे नासियाफ़र्सा हैं आज वो जो कल न कर सके थे तेरा इन्तज़ार भी इक राह रुक गई तो ठिठक क्यों गई आद आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी 5. आलम ही और था जो शनासाइयों में था जो दीप था निगाह की परछाइयों में था वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में इक साए-बाँ सा दर्द की पुरवाइयों में था दिल को भी इक जराहत-ए-दिल ने अता किया ये हौसला के अपने तमाशाइयों में था कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला सूरज मेरी निगाह की सच्चाइयों में था अपनी गली में क्यूँ न किसी को वो मिल सका जो एतमाद बादिया-पैमाइयों में था इस अहद-ए-ख़ुद-सिपास का पूछो हो माजरा मसरूफ़ आप अपनी पज़ीराइयों में था उस के हुज़ूर शुक्र भी आसाँ नहीं 'अदा' वो जो क़रीब-ए-जाँ मेरी तन्हाइयों में था 6. अचानक दिल-रुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना दुआ आसाँ नहीं रहना सुख़न दुश्वार हो जाना तुम्हें देखें निगाहें और तुम को ही नहीं देखें मोहब्बत के सभी रिश्तों का यूँ नादार हो जाना अभी तो बे-नियाज़ी में तख़ातुब की सी ख़ुश-बू थी हमें अच्छा लगा था दर्द का दिल-दार हो जाना अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो हमें आता है पत-झड़ के दिनों गुल-बार हो जाना अभी कुछ अन-कहे अल्फ़ाज़ भी हैं कुँज-ए-मिज़गाँ में अगर तुम इस तरफ़ आओ सबा रफ़्तार हो जाना हवा तो हम-सफ़र ठहरी समझ में किस तरह आए हवाओं का हमारी राह में दीवार हो जाना अभी तो सिलसिला अपना ज़मीं से आसमाँ तक था अभी देखा था रातों का सहर आसार हो जाना हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना. 7. दीप था या तारा क्या जाने दिल में क्यूँ डूबा क्या जाने गुल पर क्या कुछ बीत गई है अलबेला झोंका क्या जाने आस की मैली चादर ओढ़े वो भी था मुझ सा क्या जाने रीत भी अपनी रुत भी अपनी दिल रस्म-ए-दुनिया क्या जाने उँगली थाम के चलने वाला नगरी का रस्ता क्या जाने कितने मोड़ अभी बाक़ी हैं तुम जानो साया क्या जाने कौन खिलौना टूट गया है बालक बे-परवा क्या जाने ममता ओट दहकते सूरज आँखों का तारा क्या जाने 8. घर का रस्ता भी मिला था शायद राह में संग-ए-वफ़ा था शायद इस क़दर तेज़ हवा के झोंके शाख़ पर फूल खिला था शायद जिस की बातों के फ़साने लिक्खे उस ने तो कुछ न कहा था शायद लोग बे-मेहर न होते होंगे वहम सा दिल को हुआ था शायद तुझ को भूले तो दुआ तक भूले और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम और फिर कुछ न लिक्खा था शायद दिल का जो रंग है ये रंग-ए-'अदा' पहले आँखों में रचा था शायद 9. गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आई खुला हुआ था दरीचा सबा नहीं आई हवा-ए-दश्त अभी तो जुनूँ का मौसम था कहाँ थे हम तेरी आवाज़-ए-पा नहीं आई अभी सहीफ़ा-ए-जाँ पर रक़म भी क्या होगा अभी तो याद भी बे-साख़्ता नहीं आई हम इतनी दूर कहाँ थे के फिर पलट न सकें सवाद-ए-शहर से कोई सदा नहीं आई सुना है दिल भी नगर था रसा बसा भी था जला तो आँच भी अहल-ए-वफ़ा नहीं आई न जाने क़ाफ़िले गुज़रे के है क़याम अभी अभी चराग़ बुझाने हवा नहीं आई बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी फिर उस के बाद कोई इब्तिला नहीं आई हथेलियों के गुलाबों से ख़ून रिस्ता रहा मगर वो शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना नहीं आई ग़ुयूर दिल से न माँगी गई मुराद 'अदा' बरसने आप ही काली घटा नहीं आई 10. उजाला दे चराग़-ए-रह-गुज़र आसाँ नहीं होता हमेशा हो सितारा हम-सफ़र आसाँ नहीं होता जो आँखों ओट है चेहरा उसी को देख कर जीना ये सोचा था के आसाँ है मगर आसाँ नहीं होता बड़े ताबाँ बड़े रौशन सितारे टूट जाते हैं सहर की राह तकना ता सहर आसाँ नहीं होता अँधेरी कासनी रातें यहीं से हो के गुज़रेंगी जला रखना कोई दाग़-ए-जिगर आसाँ नहीं होता किसी दर्द-आश्ना लम्हे के नक़्श-ए-पा सजा लेना अकेले घर को कहना अपना घर आसाँ नहीं होता जो टपके कासा-ए-दिल में तो आलम ही बदल जाए वो इक आँसू मगर ऐ चश्म-ए-तर आसाँ नहीं होता गुमाँ तो क्या यक़ीं भी वसवसों की ज़द में होता है समझना संग-ए-दर को संग-ए-दर आसाँ नहीं होता न बहलावा न समझौता जुदाई सी जुदाई है 'अदा' सोचो तो ख़ुश-बू का सफ़र आसाँ नहीं होता 11. गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ हम ऐसे लोग अब मिलें हिकायतों के दरमियाँ लहू-लुहान उँगलियाँ हैं और चुप खड़ी हूँ मैं गुल ओ समन की बे-पनाह चाहतों के दरमियाँ हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ सहिफ़ा-ए-हयात में जहाँ जहाँ लिखी गई लिखी गई हदीस-ए-जाँ जराहतों के दरमियाँ कोई नगर कोई गली शजर की छाँव ही सही ये ज़िंदगी न कट सके मुसाफ़तों के दरमियाँ अब उस के ख़ाल-ओ-ख़द का रंग मुझ से पूछना अबस निगाह झपक झपक गई इरादतों के दरमियाँ सबा का हाथ थाम कर 'अदा' न चल सकोगी तुम तमाम उम्र ख़्वाब ख़्वाब साअतों के दरमियाँ 12. काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या घुलता हुआ लहू में ये ख़ुर्शीद सा है क्या पलकों के बीच सारे उजाले सिमट गए साया न साथ दे ये वही मरहला है क्या मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ तुम मुझ से पूछते हो मेरा हौसला है क्या साग़र हूँ और मौज के हर दाएरे में हूँ साहिल पे कोई नक़्श-ए-क़दम खो गया है क्या सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मेरी इंतिहा है क्या इक ख़्वाब-ए-दिल-पज़ीर घनी छाँव की तरह ये भी नहीं तो फिर मेरी ज़ंजीर-ए-पा है क्या क्या फिर किसी ने क़र्ज़-ए-मुरव्वत अदा किया क्यूँ आँख बे-सवाल है दिल फिर दुखा है क्या 13. ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था दिल का आलम भी बे-मिसाल सा था अक्स मेरा भी आइनों में नहीं वो भी कैफ़ियत-ए-ख़याल सा था दश्त में सामने था ख़ेमा-ए-गुल दूरियों में अजब कमाल सा था बे-सबब तो नहीं था आँखों में एक मौसम के ला-ज़वाल सा था ख़ौफ़ अँधेरों का डर उजालों से सानेहा था तो हस्ब-ए-हाल सा था क्या क़यामत है हुज्ला-ए-जाँ में उस के होते हुए मलाल सा था जिस की जानिब 'अदा' नज़र न उठी हाल उस का भी मेरे हाल सा था 14. जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा ये सुकूँ का दौर-ए-शदीद है कोई बे-क़रार कहाँ रहा जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम कोई दिल-रुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा कोई बात ख़्वाब ओ ख़याल की जो करो तो वक़्त कटेगा अब हमें मौसमों के मिज़ाज पर कोई ऐतबार कहाँ रहा हमें कू-ब-कू जो लिए फिरी किसी नक़्श-ए-पा की तलाश थी कोई आफ़ताब था ज़ौ-फ़गन सर-ए-रह-गुज़ार कहाँ रहा मगर एक धुन तो लगी रही न ये दिल दुखा न गिला हुआ के निगाह को रंग-ए-बहार पर कोई इख़्तियार कहाँ रहा सर-ए-दश्त ही रहा तिश्ना-लब जिसे ज़िंदगी की तलाश थी जिसे ज़िंदगी की तलाश थी लब-ए-जूएबार कहाँ रहा 15. हाल खुलता नहीं जबीनों से रंज उठाए हैं जिन क़रीनों से रात आहिस्ता-गाम उतरी है दर्द के माहताब ज़ीनों से हम ने सोचा न उस ने जाना है दिल भी होते हैं आब-गीनों से कौन लेगा शरार-ए-जाँ का हिसाब दस्त-ए-इमरोज़ के दफ़ीनों से तू ने मिज़गाँ उठा के देखा भी शहर ख़ाली न था मकीनों से आश्ना आश्ना पयाम आए अजनबी अजनबी ज़मीनों से जी को आराम आ गया है 'अदा' कभी तूफ़ान कभी सफ़ीनों से